पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३२६

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मैंने अब तक जो लिखा, उससे यह पाया जाता है कि उस समय अकबर के दरबार में व्रजभाषा की बड़ी चर्चा थी। यह मैं स्वीकार करूंगा कि रहीम खां खान खाना ने अवधी भाषा में भी रचना की है, पर उनकी अधिकांश रचनायें व्रजभाषा की ही हैं। 'नरहरि' और 'गंग' की जो रचनायें ऊपर उद्धृत की गई हैं। उनकी भाषा भी प्रौढ़ ब्रजभाषा है । इससे ब्रजभाषा के अधिक प्रचार होने का रहस्य समझ में आ जाता है। इसके अतिरिक्त उन दिनों मथुरा वृन्दावन में कृष्णावत संप्रदाय के ऐसे प्रसिद्ध महात्मा हुये. जिनका बहुत बड़ा प्रभाव अन्य प्रदेशों पर भी पड़ा । इन महात्माओं में से अधिकांश की रचनायें मैं ऊपर उद्धृत कर आया हूं। उनके पढ़ने से आप को ज्ञात होगा कि उस समय व्रजभाषा कविता का प्रवाह कितना प्रबल था। जिस भाषा के सहायक सम्राट से लेकर उनके मंत्रि-मण्डल. उनके दरबारी राजे महाराजे और सामयिक अधिकांश महात्मागण हों उसका विशेष आदृत और विस्तृत हो जाना आश्चर्यजनक नहीं। मीराबाई के भजनों को भी आप पढ़ चुके हैं। वह भी भगवान कृष्णचन्द्र के प्रेम में ही रँगी थी। उनकी रचनाओं से यह बात स्पष्ट तथा विदित होती है। उस समय ब्रजभाषा की समुन्नति में उनका भी कम प्रभाव नहीं पड़ा । यह सच है कि उनकी भाषा में राजस्थानी शब्द मिलते हैं। परन्तु उनकी अधिकतर रचनायें ब्रजभाषा के ही रङ्ग में रँगी हैं। व्रजभाषा के विस्तार का एक बहुत बड़ा हेतु और भी है। वह यह कि कृष्णावत सम्प्रदाय जहाँ जहाँ गया वहाँ वहाँ उस सम्प्रदाय की प्रिय भाषा व्रजभाषा भी उसके साथ गई। भगवान् कृष्णचन्द्र और श्रीमती राधिका जिनके आराध्यदेव हों वे उनकी प्रिय भाषा का आदर क्यों न करते ? भगवान कृष्णचन्द्र के गुणगान का अधिक सम्बन्ध ब्रजलीला ही से है। फिर ब्रजप्रान्त की भाषा आदृत क्यों न होती ? कृष्ण-भक्ति के साथ ब्रजभाषा का घनिष्ट सम्बन्ध है। इसलिये वह भी उनकी भक्ति के साथ साथ ही उत्तरीय भारत में, राजस्थान और गुजरात में, अपना प्रभाव विस्तार करने में समर्थ हुई।

एक बात और है, वह यह कि भगवान कृष्णचन्द्र श्रृंगार रस के देवता