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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३२८

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की ओर मैं आपलोगों को दृष्टि विशेष रूप से आकर्षित करता हूं। उनके देखने से आप लोगों को यह ज्ञात होगा कि इसी शताब्दी में ही कुछ कवियों ने ब्रजभाषा की रचना में फ़ारसी और अरबी के अधिकतर शब्दों को भरना आरम्भ किया था। परन्तु ऐसे कवियों को सफलता प्राप्त नहीं हुई और न उनका अनुकरण हुआ। फ़ारसी अरबी के शब्दों के ग्रहण करने के वही नियम गृहीत रहे । अपनी आदर्श रचना द्वारा जिनका प्रचार सूरदास जी और गोस्वामी तुलसीदास जी ने किया था अर्थात् ब्रज-भाषा की कविता में वे ही शब्द आवश्यकतानुसार लिये गये जो अधिकतर बोलचाल में आते अथवा प्रचलित थे।


(ग)

इसी शतक में दादूदयाल जी का आविर्भाव हुआ। उनकी गणना निर्गुणवादी संतों में की जाती है। कोई उनको ब्राह्मण संतान कहता है,कोई यह कहता है कि वे एक धुनियाँ थे जिनको एक नागर ब्राह्मण ने पाला पोसा था। वे जो हों, किन्तु उनका हृदय प्रेममय और उदार था। उनमें दयालुता की मात्रा अधिक थी, इसी लिये उनको दादूदयाल कहते हैं । उनको कलहविवाद प्रिय नहीं था। शान्तिमय जीवन ही उनका ध्येय था, इस लिये उनकी रचनाओं में वह कटुता नहीं मिलती जो कबीर साहब की उक्तियों में मिलती है। उनके ग्रन्थों के पढ़ने से यह ज्ञात होता है कि वे हिन्दू जाति से सहानुभूति रखते थे और उनके देवी-देवताओं और महात्माओं पर व्यंग वाण प्रहार करना उचित नहीं समझते थे। उनका विचार यह था कि संत होने के लिये संत भाव की आवश्यकता है। इस दृष्टि से वे किसी महापुरुष की कुत्सा करके अपने को सर्वोपरि बनाना नहीं चाहते थे। अतएव उनकी रचनाओं में यथेष्ट गंभीरता पायी जाती है। उनको यह ज्ञात था कि उस समय हिन्दू धर्म पर किस प्रकार आक्रमण हो रहा था. इस लिये उसके प्रति वे सहानुभूति पूर्ण थे और इसी कारण उन्होंने वह मार्ग नहीं ग्रहण किया जिससे उसका धर्म-क्षेत्र कंटकित हो और औरों को उस पर अयथा आक्रमण करने का अधिक अवसर प्राप्त हो। वे हिन्दू संतान थे। इसलिये उनका हिन्दू संस्कार जाग्रत था और यही कारण है कि वे उसके धर्म-याजकों पर अनुचित कटाक्ष करते