पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३२९

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नहीं देखे जाते । वे जितने ही मिथ्याचार के विरोधी थे उतने ही मिथ्यावाद से दूर। वे यह जानते थे कि सत्य में बल है। इस लिये वे सत्य का प्रचार सत्य भाव ही से करते थे असंयत भावों के साथ नहीं। लगभग यह बात सभी हिन्दू निर्गुणवादियों में पायी जाती है, यहां तक कि कबीर साहब के प्रधान शिष्य धर्मदास, श्रुतगोपालदास आदि में भी यही भाव कार्यरत देखा जाता है। इन लोगों में भी हिन्दू धर्म के प्रति वह दुर्भाव नहीं देखा जाता जिससे हिन्दू धर्म के प्रति उनका असद्भाव प्रगट हो दादू- दयाल के हृदय का विनीत भाव इससे भी प्रगट होता है कि वे सब को दादा कहते थे और इसी लिये उनका नाम दादू पड़ा। उनकी कुछ रचनायें आप के सामने उपस्थित की जाती हैं। इनको पढ़ कर आप लोगों को स्वयं यह ज्ञात होगा कि वे क्या थेः-

(१) अजहुँ न निकसे प्रान कठोर।
दरसन बिना बहुत दिन बीते सुन्दर प्रीतम मोर।
चार पहर चारहुँ जुग बीते रैनि गंवाई भोर।
अवधि गये अजहूँ नहिं आये कतहुँ रहे चित चोर।
कबहूँ नैन निरख नहिं देखे मारग चितवत तोर।
दादू अइसहि आतुरिविरहिनि जैसहि चन्दचकोर।
(२) भाई रे ! ऐसा पंथ हमारा।
द्वै पख रहित पंथ गह पूरा अबरन एक अधारा।
वाद विवाद काहु सों नाहीं मैं हूँ जग थें न्यारा।
सम दृष्टी सूं भाइ सहज में आपहिँ आप बिचारा।
मैं तें मेरी यहु मति नाहीं निरवैरी निरविकारा।
पूरण सबै देखि आपा पर निरालंब निरधारा।
काहु के संगी मोह न ममता संगी सिरजन हारा।
मनही मनसू समझु सयाना आनँद एक अपारा।