पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३३

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इस प्रकार का बहुत अधिक प्रयोग मिलता है। यथा-श्रवण-श्रोण, ( तै० ब्रा० १, ५, १, ४-५, २, ९) अन्तरयति-अन्तरेति ( शत० प्रा० १, २, २, १८,)

प्राकृत में 'दा' के स्थान पर 'ज' होता है, और प्राकृत नियमानुसार स्थान-विशेष में यह जकार द्वित्व को प्राप्त होता है । यथा-द्युति-जुति, विद्या- विज्जा । वैदिक भाषा में इस प्रकार का प्रयोग बहुत अधिक पाया जाता है, अन्तर केवल इतना है, कि यहां 'य' कार का लोप नहीं होता। जैसे- योतिस, ज्योतिस, द्योतते-ज्योतते, द्योनय-ज्योतय (व्यथ० स० ४,३७, १०) अवद्योतयति अवज्योतयति ( शत० ब्रा० १, २, ३, ३, ३६) अव द्योत्त्य-अवज्योत्य ( का० श्रो० ४, १४, ५ )।

दूसरा सिद्धान्त क्या है, मैं उसका परिचय दे चुका हूं। वह मागधी को आदि कल्पोत्पन्न मूलभाषा, आदिभाषा और स्वाभाविक भाषा मानता है। यदि इस भाषा का अर्थ वैदिक भाषा के अतिरिक्त सर्व साधारण में प्रचलित भाषा है, तो वह सिद्धान्त बहुत कुछ माननीय है। क्योंकि महर्षि पाणिनि के प्रसिद्ध सूत्रों में वेद अथवा उसमें प्रयुक्त भाषा, छन्द. मंत्र, निगम आदि नामों से अभिहित है, यथा--विभापाछन्दमि (१, २, ३६ अय-मयादीनिछन्दसि ( १, ४, २० नित्यं मन्त्रं ( ६, १. १०) जनितामन्त्रं (९, ४, ५३ ) वावपूर्वस्यनिगमे (६, ४, ५) ससूर्वति- निगमे ( ७, ४, ७४) ! * परन्तु भाषाओं के लिये लोक, लौकिक, अथवा भाषा शब्द का ही उपयोग उन्होंने किया है यथा----विभापा भाषायाम ( ९, १, ८१ ) स्थेच भाषायाम् (६.३.२०) प्रथमायाश्चद्विवचने भाषा- याम ( ७, २, ८८ ) पूर्व तु भाषायाम (८, २, ५८ ) परन्तु वास्तव बात यह नहीं है, वग्न वास्तव बात यह है कि मागधी को मूलभाषा अथवा आदि भाषा कह कर वेद भाषा पर प्रधानता दी गई है, क्योंकि वह

देखो-पालि प्रकाश पृष्ट-४०, ४१, ४२, ४३ प्रवेशिका ।

संस्कृतं प्राकृतं चैवापभ्रशोथ पिशाचर्की । मागधी शौरसेनीच पडू भाषाश्च प्रकीर्तिता। प्राकृत लक्षणकार टीः ।