कुछ लोग इस प्रणाली का विरोध करते हैं। उनका कथन है कि सुविधा पर दृष्टि रख कर यदि एक ही शब्दके अनेक रूप गृहीत होने लगेंगे तो इससे भाषा सम्बंधी नियम की रक्षा न होगी और निरंकुशता को प्रश्रय मिलेगा। लोग बेतरह शब्दों को तोड़ मरोड़ कर मनमानी करेंगे और साहित्यक्षेत्र में उच्छृखलता विप्लव मचा देगी । यह कथन बहुत कुछ युक्ति-संगत है, परन्तु ब्रजभाषा साहित्य के मर्मज्ञों अथवा महाकवियों ने यदि उक्त प्रणाली ग्रहण की तो इस उद्देश्य से नहीं कि निरंकुशता को प्रश्रय दिया जाय । शब्द गढ़ने के पक्ष पाती वे नहीं थे, न शब्दों को अधिक तोड़ने-मरोड़ने के समर्थक । वरन् उनका विचार यह था कि विशेष स्थलों पर यदि उपयुक्त अवधी के शब्द आ जाँय तो वे आपत्ति जनक नहीं। अवधी भाषा के कवियों को भी इस प्रणाली का अनुमोदन करते देखा जाता है। क्योंकि उनकी रचनाओं में भी ब्रजभाषा के शब्द विशेष स्थलों पर ग्रहीत होते आये हैं। किन्तु इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि यदि कोई विशेष क्षम- तावान है और वह शुद्ध ब्रजभाषा में या शुद्ध अवधी ही में रचना करना चाहता है तो अनुचित करता है। भाषाधिकार कविता का विशेष गुण है। गुण का त्याग किसे वांछनीय होगा ? परन्तु यह स्मरण रहना चाहिये कि कवि-परम्परा (Poetic lieense) का भी कुछ आधार है, कवि कार्य के जटिल पथ में वह सुविधा का अंगुलि-निर्देश है। इसी लिये ब्रजभाषा के साहित्यकारों ने चाहे वे प्रारम्भिक काल के हो, अथवा माध्यमिक काल या उत्तर काल के, इस सुविधा से मुख नहीं मोड़ा । एक बात और है । वह यह कि ब्रजभाषा और अवधी में अधिकतर उच्चारण का विभेद है। अन्यथा दोनों में बहुत कुछ एक रूपता है । इसका कारण यह है कि अवधी पर शौरसनी का अधिकतर प्रभाव रहा है। भरतमुनि कहते हैं:-
शौरसेन्याऽविदृरत्वात् इयमेवाई मागधी।"
इसका अर्थ यह है कि शौरसेनी से अविदूर (सन्निकट. होनेके कारण) मागधी अर्द्ध मागधी कहलाती है। यह कौन नहीं जानता कि शौरसेनी से