साधुओं में सुंदरदास ही ऐसे हैं जो विद्वान थे और जिन्होंने काशी में बीस वर्ष तक रह कर वेदान्त और अन्य दर्शनों की शिक्षा संस्कृत द्वारा पाई थी। वे जाति के खण्डेल वाल बनिये और दादूदयाल के शिष्य थे । उन्होंने देशाटन अधिक किया था, अतएव उनका ज्ञान विस्तृत था । वे बाल ब्रह्मचारी और त्यागी थे। उनका कोई पंथ नहीं है। परन्तु सुन्दर और सरस हिन्दी रचनाओं के लिये वे प्रसिद्ध हैं। उनकी अधिकांश रचनाओं पर वेदान्त-दर्शन की छाप है और उन्होंने उसके दार्शनिक विचारों को बहुत ही सरलता से प्रकट किया है। कहा जाता है, उन्होंने चालीस ग्रन्थों की रचना की, जिनमें से सुन्दरसांख्य-तर्क चिन्तामणि' 'ज्ञान विलास' आदि ग्रन्थ अधिक प्रसिद्ध हैं। उन्होंने साखियों की भी रचना की है। शब्द भी बनाये हैं। और बड़े ही सरस कवित्त और सवैये भी लिखे हैं। उनमें से कुछ नीचे लिखे जाते हैं।
१-बोलिये तो तब जब बोलिबे की सुधि होइ ।
न तो मुख मौन गहि चुप होइ रहिये ।
जोरिये तो तब जब जोरिबे की जान परै
तुक छंद अरथ अनूप जामैं लहिये ।
गाइये तो तब जब गाइबे को कंठ होइ ।
जौन के सुनत ही सुमन जाइ गहिये ।
तुक भंग छंद भंग अरथ मिलै न कछु ।
सुंदर कहत ऐसी बानी नहिं कहिये ।
२-गेह तज्यो पुनि नेह तज्यो,
पुनि खेह लगाइ कै देह सँवारी ।
मेघ सहै सिरसीत सहै,
तन धूप समै में पंचागिन बारी।