सो ताको सागर जहाँ जाकी प्यास बुझाय।
बढ़त बढ़त संपति सलिल मन सरोज बढ़ि जाय ।
घटत घटत पुनि ना घटै बरु समूल कुम्हिलाय ।
को कहि सके बड़ेन सों लखे बड़ीयौ भूल ।
दीन्हें दई गुलाब की इन डारन ये फूल ।
कुछ उनके शृंगार रस के दोहे देखियेः-
तरस लालच लाल की मुरली धरी लुकाय ।
सौंह करै भौंहन हँसै देन कहै नदि जाय ।
दृग अरुझत टूटत कुटुम जुरत चतुर चित प्रीति ।
परति गाँठ दुरजन हिये दई नई यह रीति ।
तच्यो आंच अति बिरह की रह्यो प्रेम रस भीजि ।
नैनन के मग जल बहँ हियो पसीजि पसीजि ।
सघन कुज छाया सुखद सीतल मन्द समीर ।
मन ह जात अजौं वहै वा यमुना के तीर ।
मानहुं विधि तनअच्छ छबि स्वच्छ राखिबे काज ।
दृग पग पोंछनको कियो भूखन पायंदाज ।
बिहारीलाल के उद्धृत दोहों में से सब का मर्म समझाने की यदि चेष्टा की जाय तो व्यर्थ विस्तार होगा. जो अपेक्षित नहीं । कुछ दोहों का मैंने स्पष्टो करण किया है। वही मार्ग ग्रहण करने से आशा है, काव्य मर्मज्ञ सुजन अन्य दोहों का अर्थ भी लगा लेंगे और उनकी व्यंजनाओं का मर्म समझ कर यथार्थ आनन्दलाभ करेंगे। बिहारी के दोहों का भी अधिक प्रचार है और सहृदय जनों पर उनका महत्व अप्रगट नहीं है । इसलिये उनके विषय में अधिक लिखना व्यर्थ है। मैं पहले उनको रचना आदि पर बहुत कुछ प्रकाश डाल चुका हूं। इतना फिर और कह देना