प्रगट की। विश्व की सारभूत दो मङ्गलमयो मूर्तियों (स्त्री पुरुष) की मङ्गल- मयी कामनाओं की कमनीयता प्रदर्शित की और अपने पद्यों में शब्द और भाव विन्यास के मोती पिरोये तो क्या लोक-ललाम को लोकोत्तर लीलाओं को ही रूपान्तर से प्रगट नहीं किया ? और यदि यह सत्य है तो बिहारी लाल पर व्यंग-वाण वृष्टि क्यों ? मयंक में धब्बे हैं, फूल में कांटे हैं तो क्या उनमें सत्यं' 'शिव' सुन्दरम्' का बिकास नहीं है ? बिहारी की कुछ कवितायें प्रकृति नियमानुसार सर्वथा निर्दोप न हो तो क्या इससे उनकी समस्त रचनायें निंदनीय हैं ? लोक-ललाम की ललामता लोकोत्तर है, इसलिये क्या उसका लोक से कुछ सम्बन्ध नहीं ? क्या लोक से ही उसकी लोकोत्तरताका ज्ञान नहीं होता ? तो फिर. लोकका त्याग कैसे होगा ? निस्संदेह यह स्वीकार करना पड़ेगा कि लोक का सदुपयोग ही वांछनीय है, दुरुपयोग नहीं। जहाँ सत्य, शिवं सुन्दरम् है वहां उसको उसी रूप में ग्रहण करना कवि कर्म है। बिहारीलाल ने अधिकांश ऐसा ही किया है, वरन मैं तो यह कहूंगा कि उनकी कला पर गोस्वामी जी का यह कथन चरितार्थ होता है कि सुंदरता कहँ 'सुंदर करहीं। संसार में प्रत्येक प्राणो का कुछ काय होता है। अधिकारी-भेद भी होता है। संसार में कवि भी हैं वैज्ञानिक भी हैं, दार्शनिक भी हैं, तत्वज्ञ भी हैं एवं महात्मा भी। जो जिस रूप में कार्यक्षेत्र में आता है, हमको उसी रूपमें उसे ग्रहण करना चाहिये और देखना चाहिये कि उसने अपने क्षेत्रमें अपना कार्य करके कितनी सफलता लाभ की। कविकी आलोचना करते हुये उसके दार्शनिक और तत्वज्ञ न होनेका राग अलापना बुद्धिमत्ता नहीं । ऐसा करना प्रमाद है, विवेक नहीं। मेरा विचार है कि बिहारी लाल ने अपने क्षेत्र में जो कार्य किया है वह उल्लेखनीय है एवं प्रशंसनीय भी। यदि उनमें कुछ दुर्वलतायें हैं तो वे उनकी वशेषताओं के सम्मुख माजनीय हैं, क्योंकि यह स्वाभाविकता है, इससे कौन बचा ?
बिहारीलाल को भाषा के विषय में मुझे यह कहना है कि वह साहित्यिक ब्रजभाषा है। उसमें अवधी के 'दीन', 'कोन' इत्यादि, बुन्देलखण्डी के लखवी और प्राकृत के मित्त ऐसे शब्द भी मिलते हैं। परन्तु उनकी संख्या