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भाषा किम्वा आदि भाषा कैसे कही जा सकती है। विश्वकोषकारने वैदिक संस्कृत से आर्ष प्राकृत, पालि, और उसके बाद की प्राकृत का सम्बन्ध प्रकट करनेके लिये शब्दों की एक लम्बी तालिका पृष्ट ४३४ में दी है, उनके देखने से यह विषय और स्पष्ट हो जावेगा। अतएव उसके कुछ शब्द यहां उठाये जाते हैं। विश्वकोषकार ने पालि प्रकाशकार के मूल प्राकृत के स्थान पर आर्य प्राकृत लिखा है, यह नामान्तर मात्र है—
!संस्कृत | आर्ष प्राकृत | पाली | प्राकृत |
---|---|---|---|
अग्निः | अग्गि | अग्गि | अग्गी |
बुद्धिः | बुद्धि | बुद्धि | बुद्धि |
मया | मये, मे | मया | मये, मइये, ममाए |
त्वम् | तां तुमन् | तां तुवम्तं | तं तुम, तुवम् |
पोडश | सोलस | सोलस | सोलह |
विंशति | वीसा | वीसति वीसम् | वीसा |
दधि | दहि, दहिम् | दधि | दहि, दहिम् |
प्राकृत लक्षणकार चण्डने आर्ष प्राकृत को, प्राकृत प्रकाशकार वररुचिने महाराष्ट्री को, पयोगसिद्धि कार कात्यायनने मागधी को, और जैन विद्वानों ने अर्ध मागधी को आदि प्राकृत अथवा मूल प्राकृत लिखा है। पालि प्रकाशकार एक स्थान पर (पृष्ट ४८, पालि को सब प्राकृतों से प्राचीन बतलाते हैं, कुछ लोग पालि और मागधी को दो भाषा समझते हैं, अपने कथन के प्रमाण में दोनों भाषाओं के कुछ शब्दोंकी प्रयोग भिन्नता दिखलाते हैं, ऐसे कुछ शब्द नीचे लिखे जाते हैं—
संस्कृत | पाली | मागधी |
शश | ससा | मो |
कुक्कुट | कुक्कुटो | रो |
अश्व | अस्स | सांगा |
श्वान | सुनका | साच |
व्याघ्र | व्यध्यो | वी |
जो अभेदवादी हैं, वे इन शब्दोंको मागधी भाषा के देशज शब्द मानते हैं। जो हो किन्तु अधिकांश विद्वान पालि और मागधी को एक हा मानते हैं। कारण इसका यह है कि बुद्धदेवने अपने उपदेश अपनी ही भाषां