पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३८५

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(३) जगी मुबारक तिय बदन अलक ओप अति होइ ।

मनो चंद की गोद में रही निसा सी सोइ।

(४) चिवुक कूप मैं मन पयो छबि जल तृषा बिचारि ।

. गहत मुबारक ताहि तिय अलक डोर सी डारि।

(५) चिबुक कृप रसरी अलक तिल सुचरस दृग बैल।

बारी बैस सिँगार की सींचत मनमथ छैल ।

(६) गोरी के मुख एक तिल सो मोहिं खरो सुहाय ।

मानहुं पंकज की कली भौंर बिलंब्यो आय ।

कभी कभी वे अपनी रचना में दुरूह फ़ारसी शब्दों का प्रयोग भी कर देते हैं, परन्तु उसको ब्रजभाषा के ढंग में बड़ी ही सुन्दरता से ढाल लेते हैं। नीचे का दोहा देखियेः-

अलक मुबारक तिय बदन लटक परी यों साफ़ ।

खुशनवीस मुनशी मदन लिख्यो काँच पर काफ़।

(४)

इस शताब्दी में प्रसिद्ध प्रवन्धकार भी हुये। इनमें गुरु गोबिंद सिंह सब से प्रधान हैं। उनके अतिरिक्त उसमान. सबलसिंह चौहान. लाल और कवि हृदयराम का नाम लिया जा सकता है। प्रेम-मार्गी कवियों के वर्णन में उसमान के विषय में मैं पहले कुछ लिख चुका हूं। इस शताब्दी में इनकी ही रचना ऐसी है जो अवधी भाषा में की गयी है। इसके द्वारा उन्होंने उस परम्परा की रक्षा की है जिसको .कुतबन अथवा मलिक मुहम्मद जायसी ने चलाया था । इनको छोड़ कर और सब प्रवन्धकार व्रजभाषा के सुकवि हैं । मैं पहले सबलसिंह चौहान और लाल के विषय में लिख कर उसके उपरांत पंजाब निवासी गुरु गोविन्दसिंह और कवि हृदयराम के विषय में कुछ लिखूंगाः- सवलसिंह चौहान इटावा जिले के प्रतिष्ठित जमींदार थे। उन्होंने महाभारत के अठारहों पर्वो के कथा भाग की रचना दोहा-चौपाई में की