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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/३९५

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४-जेहि मृग राखे नैन बनाय ।
अंजन रेख स्याम पै अटकत सुदर फांद चढ़ाय ।
मृग मद देत जिनैं नरनारिन रहत सदा अरुझाय ।
तिनके ऊपर अपनी रुचि सोंरीझि स्याम बलि जाय ।
५-सेत धरे सारी वृष भानु की कुमारी
जस ही की मनो बारी एसो रची है न को दई ।
रंभा उरबसी और सची सी मंदोदरी
पै ऐसी प्रभा काकी जग बीच ना कछू भई।
मोतिन के हार गरे डार रुचि सों सिंगार
स्याम ज़ पै चली कवि स्याम रस के लई।
सेत साज साज चली साँवरे के प्रोति काज
चाँदनी में राधा मानो चाँदनी सो है गई ।

गुरु गोविन्दसिंह की भाषा साहित्यिक ब्रजभाषा है. इसमें कोई सन्देह नहीं। उसमें व्रजभाषा-सम्बन्धी नियमों का अधिकतर पालन हुआ है। किसी किसो स्थान पर णकार का प्रयाग नकार के स्थान पर पाया जाता है। किन्तु यह पंजाब के बोलचाल का प्रभाव है। काई कोई शब्द भी पंजाबी ढंग पर व्यवहन हुये हैं। इसका कारण मा प्रान्तिकता ही है। परन्तु इस प्रकार के शब्द इतने थोड़े हैं कि उनमें व्रजभाषा की विशेषता नष्ट नहीं हुई है। कुल दशमग्रंथ साहब ऐमी ही मापा में लिया गया है, जिससे यह ज्ञात होता है कि उस समय ब्रजभापा किस. प्रकार सवत्र समारत थी । इस ग्रंथ में कहीं कहीं पंजाबी मापा को भी कुछ रचनायें मिल जाती हैं. किन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। पोड़ियों में लिखा गया चंडीचरित्र ऐसा ही है । ज़फ़रनामा फ़ारसी भाषा में है, यह मैं पहले बनला चुका है। अपने ग्रंथ में गुरुगोविन्द सिंह ने इतने अधिक छंदों का व्यवहार किया है जितने छंदों का व्यवहार आचार्य