पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४०

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शुद्ध संस्कृत है, और न प्राकृत, उसमें दोनोंका विचित्र संमिश्रण देखा जाता है, इसी लिये उसको संस्कृत और प्राकृतका मध्यवर्ती कहा गया है, और यही कारण है कि सब से प्राचीन प्राकृत पालि की उत्पत्ति उस से मानी गई है। गाथा का एक श्लोक देखिये।

अध्रु वम् त्रिभवम् शरदभ्रनिभम्।
नटरंग समाजगि जन्मिच्युति।
गिरिनद्य समम् लघु शीघ्र जवम्।
व्रजतायुजगे पथ विद्युनभे।

संस्कृत के नियम के अनुसार दूसरे चरण के नटरंग समा को नटरंग समम्—जगिजन्मिच्युति के स्थान पर जगति जन्मच्युतिः होना चाहिये। तीसरे चरण में गिरिनद्य समम् को गिरिनदी समम् और चतुर्थ चरण को 'ब्रजत्यायुर्जगति पघविद्युनभसि, लिखना ठीक होगा। परन्तु उस समय भाषा ऐसी विकृत हो रही थी, कि इन अशुद्ध प्रयोगों का ध्यान बिल्कुल नहीं किया गया। यह सब होने पर भी पालि प्रकाशकार ने एक लम्बा लेख लिख कर और बहुत से अकाट्य प्रमाणों को देकर यह सिद्ध किया है कि गाथा की रचनायें अपभ्रंश काल के लगभग हुई हैं जो सब से अन्तिम प्राकृत है। ऐसी अवस्था में वह पालिभाषा की पूर्ववर्ती नहीं हो सकती, और न उससे उस की उत्पत्ति मानी जा सकती है। उनके प्रमाणों को मैं विस्तार भय से नहीं उठाता हूं। किन्तु उन को पढ़ने के उपरान्त यह स्वीकार करना असंभव हो जाता है कि गाथा से पालि की उत्पत्ति हुई। यदि डाकर गजेन्द्र लाल मित्र इत्यादि की सम्मति मान ली जावे तो पालि भाषा उसके बाद की प्राकृत ठहरती है, और ऐसी अवस्था में उसका मूल भाषा होना और असंभव हो जाता है, मागधी की बात ही क्या। अब तक मैं जो कुछ लिख आया उससे पाया जाता है कि पालि अथवा मागधी किसी प्रकार मूल भाषा नहीं हो सकती। उसका आधार वैदिक भाषा है, जो अनेक सूत्रों से प्रतिपादित किया जा चुका है।