पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४१

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इस प्रकार के मतभेद और खींचतान का आधार कुछ धार्मिक विश्वास और कुछ आपेक्षिक ज्ञान की न्यूनता है। बौद्ध ग्रन्थों में लिखा है-

“यदि माता पिता अपनी भाषा बच्चे को न सिखलावें तो वह स्वभाव- तया मागधी भाषा को ही बोलेगा। इसी प्रकार एक निर्जन बन में रखा हुआ आदमी यदि स्वभाव-वश बोलने का प्रयत्न करे तो उसके मुख से मागधी ही निकलेगी। इसी भाषा का प्राधान्य तीनों लोकों में है, अन्यान्य भाषायें परिवर्तनशील हैं, यही सदा एक रूप में रहती है। भग- वान् बुद्ध ने अपने तिपिटक की रचना भी इसी सनातन भाषा में की है" १.

इस प्रकार के विचारों के विषय में कुछ अधिक कथन करना व्यर्थ है। केवल एक कथन की ओर आप लोगों की दृष्टि मैं और आकर्पित करूंगा, वह यह कि कुछ लोगों का यह विचार है कि मागधी को देश भाषा मूलक मान कर मूलभाषा कहा गया है। किन्तु यह सिद्धान्त मान्य नहीं, क्यों कि यदि ऐसा होता तो द्राविड़ी और तेलगू आदि देश भाषाओं के समान वह भी एक देश भाषा मानी जाती, परन्तु उस को किसी पुरा तत्ववेत्ता ने आज तक ऐसा नहीं माना, वह आर्य भाषा संभवा ही मानी गई है, इस लिये यह तर्क सर्वथा उपेक्षणीय है। आर्यभाषा संभवा वह इस लिये मानी गई है, कि उसकी प्रकृति आर्यभाषा अथवा वेदभाषा मूलक है। प्राकृत भाषा के जितने व्याकरण हैं, उन्हों ने संस्कृत के शब्दों और प्रयोगों द्वारा ही प्राकृत के शब्द और रूपा को बनाया है। प्राकृत भाषा का व्याकरण सर्वथा संस्कृतानुसारी है। संस्कृत और प्राकृत के अधिकांश शब्द एक ही झोले के चट्ट बटुं अथवा एक फूल के दो दल अथवा एक चने की दो दाल ज्ञात होते हैं, थोड़े से ऐसे शब्द नीचे लिग्वे जाते हैं-

१ दे० M. Miller: Lectures o. the Science of Language, भाग १, ०१४५।

"Even Buddhaghosa (reminding one of Herolotus story) says thal a child brought up without hainy th : human voice would instinct- ively speak Magadhi (Alw. 1. cvii)-Childers, Dictionary of the Pali Language, p. xiii. दे० प्रालिप्रकाश-पृ० ९६ ।