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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४०५

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( ३९१ )

 (६) ऐसो जो हौं जानतो कि जै है तू विषै के संग
         एरे मन मेरे हाथ पाँव तेरे तोरतो।
     आजुलौं हौं कत नरनाहन की नाहींसुनि
         नेह सों निहारि हेरि बदन निहोरतो।
     चलन न देतो देव चंचल अचल करि
        •चावुक चितावनीन मारि मुंह मोरतो।
     भारो प्रेम पाथर नगारो दै गरे सों बाँधि
         राधावर विरद के बारिधि में बोरतो।
 (७) गुरु जन जावन मिल्यो न भयो दृढ़ दधि
         मथ्यो न विवेक रई देव जो बनायगो ।
     माखन मुकुति कहाँ छाड्यो न भुगुति जहाँ
         नेह बिनु सगरो सवाद खेह नायगो।
     बिलखत बच्यो मूल कच्यो मच्यो लोभ भाड़े
         नच्यो कोप आँच पच्यो मदन छिनायगो।
     पायो न सिरावनि मलिल लिमा छींटन सो
         दृध सो जनम बिनु जाने उफनायगो।
 (८) कथा मैं न कथा मैं न तीरथ के पंथा मैं न
         पोथी मैं न पाथ मैं न साथ की बसीति मैं।
     जटा मैं न मुंडन न तिलक त्रिपुंडन न
         नदी कृप कुडन अन्हान दान रीति मैं।
     पीठ मठ मंडल न कुंडल कमंडल न
         मालादंड मैं न देव देहर की भोति मैं ।
     आपु ही अपार पारावार प्रभु पूरि रहृाो
         पाइए प्रगट परमेसर प्रतोति मैं ।