पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४२

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(२८)

संस्कृत मागधी संस्कृत मागधी
कृतं कतं ऐश्वर्यम् इस्सरइयन
गृहं गहं मौक्तिकं मउत्तइकम्
घृतं घनं पौरः पौरों
वृत्तान्तः वृत्तन्तो मनः मनो
चैत्रः चित्तो भिक्षुः भिक्खु
क्षुद्रं खुद्दं अग्निः अग्गी

केवल कुछ शब्दों के मिल जाने से ही किसी भाषा का आधार कोई भाषा नहीं मानी जा सकती, उन दोनों की प्रकृति और प्रयोगों को भी मिलना चाहिये। वैदिक संस्कृत और मागधी अथवा पालि की प्रकृति भी मिलती है, उनका व्याकरण सम्बन्धी प्रयोग भी अधिकांश मिलता है—नीचे के श्लोक इसके प्रमाण हैं। संस्कृत श्लोक के नीचे जो दो श्लोक हैं, उनमें से पहला शुद्ध मागधी और दूसरा अर्ध मागधी है। देखिये उनमें परस्पर कितना अधिक साम्य है—

रभसवश नम्र सुरशिरो विगलित मन्दार
राजितांघ्रि युगः।
वीर जिनः प्रक्षालयतु मम सकल मवद्य जम्वालम्।
लहश वश नमिल शुल शिल विअलिद मन्दाल
लायिदंहि युगे।
वील धिणे पक्खालडु मम शयल मयय्य यम्वालम्।
लभश वश नमिल शुल शिल विअलिद
मन्दाल लाजिदाई युगे।
वील जिणे पक्खालदु मम शयल मवज्ज जम्वालम्।

ऐसी अवस्था में यदि प्राकृत भाषा अर्थात् पालि और मागधी आदि वैदिक भाषा मूलक नहीं हैं, तो क्या देश भाषा मूलक हैं? वास्तव में मागधी अथवा अर्ध मागधी किम्बा पालि की जननी वैदिक संस्कृत है।