पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४२१

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       स्थामल चीर मनो पसज्यो
                     तेहि पै कलकंचन येलि नई।
   २---दिग्गज दयत दबकत दिगपाल भूरि
            धूरि की धुंधेरी सों अँधेरी आभा भानुकी।
       धाम औ धरा को माल बोल अबला को अरि
            तजत परान राह चाहत परान की ।
       मैयद समर्थ भूप अली अकबर दल
            चलत बजाय मारु दुंदुभी धुकान की।
       फिरि फिरि फननु फनीस उलटतु ऐसे
            चोलो खोलि ढ़ोलीज्यों तमोली पाके पानको।
 कहा जाता है कि पिता का गुण यदि पुत्रमें नहीं तो पौत्रमें आता है।

दुलह कालिदास त्रिवेदी के पौत्र थे, किंतु वे भाग्यवान थे कि उनके पिता कवीन्द्र भो सत्कवि थे । वास्तव में उनमें तोन पीढ़ियों द्वारा संचित कवि- कम्म का विकास था । दूलह की गणना हिन्दी संसार के प्रसिद्ध कवियों में है। उनका 'कवि कुल-कंठाभरण' नामक अलंकार का केवल एक ग्रंथ है. किन्तु इसी ग्रंथ के आधार में वे ख्याति प्राप्त हैं। उनकी कुछ स्फुट रचनायें भी मिलती हैं. परन्तु उनकी संख्या भी अधिक नहीं । कवि कुल कंठाभरण' कबित्तों और सदृयों में रचा गया है। इसीलिये उसमें अलंकारों का निरूपण यथातथ्य हो सका है। उसकी प्रसिद्धिका कारण भी यही है। इसी मूत्र से उस काल के अलंकागनुरागी कवियों में उसका अधिक आदर हुआ। ग्रंथ की रचना माहित्यिक ब्रजभाषा में है. उसमें यथेष्ट सग्सता और मनोहरता भी है। उनकी अन्य रचनाये भी ऐसा ही हैं। कुछ पदा नीचे लिग्वे जाते हैं :---

१---उत्तर उत्तर उत करख बखानौ 'सार'

            दीरघ ते दीरघ लघू ते लघू भारोको