पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४२३

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   १---छहरै सिर पै छवि मोर पखा
                उनकी नथ के मुकता थहरैं ।
       फहरै पियरो पट बेनी इतै
                उनकी चुनरी के झवा झहरैं ।
       रस रंग भिरे अभिरे हैं तमाल
                दोऊ रस ख्याल चहैं लहरैं ।
       नित एैसे सनेह सों राधिका
                स्थाम हमारे हिये में सदा बिहरैं।
   २---कवि वेनी नई उनई है घटा
                मोरवा बन बोलत कूकन री।
       छहरैं बिजुरी छिति मंडल छै
                लहरै मन मैन भभूकन री।
       पहिरौ चुनरी चुनि के दुलही
                सँग लाल के झूलहु झुकन री।
       ऋतु पावस योंही बितावति हौ
                मरिहौ फिर बावरी हूकन री।
   दूसरे वेना गेति ग्रन्थकार हैं. उन्हों ने टिकेतराय प्रकाश' और

रसविलास, नामक दो ग्रथों की रचना की है। पहला ग्रन्थ अलंकार का ओर दूसग रस सम्वन्धी है । भापा इनकी भी सरस और सुदंर है । भावा- नुकुल शब्द-विन्यास में यं निपुण हैं । इनमें विशेपता यह है कि इन्होंने हास्यरस की भा प्रशंसनाय रचना की है और अधिकतर उसमें ब्यंग से काम लिया है। ये हिन्दो संसार के 'सौदा' कहे जा सकते हैं। जैसे उदू कवियों में हजो कहने में सौदा का प्रधान स्थान है उसी प्रकार किसी को हँसो उडाने अथवा किसी पर व्यंग-वाण बर्षा करने में ये भी हिन्दी कवियों के अग्रणी हैं। ये जिसम ग्विजे या बिगड़े उसीकी गत बना दी