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चाहे वह कोई स्थान हो वा कोई मनुष्य । परन्तु इनको भाषा की विशेषता सर्वथा सुरक्षित रहती है। इनको अन्य रचनायें भी मनोहारिणी ओर ललित हैं। हां, चटपटी प्रकृति उनमें मो प्रतिबिम्बित मिलती है । कुछ पद्य देखिये:- १---घर घर घाट घाट बाट बाट ठाट ठटे बेला औ कुबेला फिरैं चेला लिये आस पास । कबिन सों बाद करैं भेद बिन नाद करैं । सदा उनमाद करैं धरम करम नास । बेनी कवि कहै बिभिचारिन को बादमाह अतन प्रकासत न सतन सरम तास । ललना ललक नैन मैन की झलक हँसि हेरत अलक रद खलक ललक दास ।
इस पघ में ललकदास एक महंत का पगड़ी उतारी गई है।
२---कारीगर कोऊ करामात कै बनाय लाया लीनो दाम थोरो जानि नई सुघरई है । राय जू को राय जू रजाई दोन्हीं राजी है कै सहर में ठौर ठौर सुहरत भई है। बेनी कवि पाय कै अघाय रहे घरी द्वैक कहत न बनै कछु ऐसी मति ठई है। • साँस लेत उडिगो उपल्ला औ भितल्ला सबै दिन द्वै के बाती हेत रुई रहि गई है। इस पद्य में एक गयजी की गत बनाई गयी है। ३---संभु नैन जाल औफनी को फूतकार कहा जाके आगे महाकाल दौरत हरोली तें।