समान सरस रचना करती थी। परंतु उसकी रचना में राजस्थानी शब्द अधिक आये हैं। एक पद्य देखिये:-
रतनारी हो थारी आखड़ियां।
प्रेम छकी रस बस अलसाणी
जाणि कमल की पाँखड़ियां ।
सुंदर रूप लुभाई गति मति
हो गई ज्यों मधु माखड़ियां ।
रसिक बिहारी वारी प्यारी ।
कौन बसे निसि काँखड़ियां ।
स्वामी हरिवंस के टट्टी सम्प्रदाय में एक महन्त शीतल नाम के हो गये हैं। इन्होंने इश्कचमन नाम की एक पुस्तक चार भागों में लिखी है। ये संस्कृत के विद्वान थे और फारसी का भो इन्हें अच्छा ज्ञान था। ये टट्टो सम्प्रदाय के महन्त तो थे ही. साथ ही प्रेममय हृदय के अधिकारी थे। इनकी रचना खड़ी बोली में हुई है, जिसमें फारसी और ब्रजभाषा के शब्द भी अधिक आये हैं ! हिन्दी में खड़ी बोली की नींव डालने- वाले प्रथम पुरुष यहो हैं। इनकी भाषा ओजमयो और रचनाशैली सरस है, भाषा में प्रवाह है और कविता पढ़ते समय यह ज्ञात होता है कि सरस साहित्य का दग्यिा उमड़ता आ रहा है । इनमें लगन मिलती है और इनका प्रेम भी तन्मयता तक पहुं चा ज्ञात होता है। इस शताब्दी में यही एक ऐसे कवि पाये गये जिन्होंने ब्रजभाषा में कविता की ही नहीं। फिर भी इनकी रचना में व्रजभाषा का पुट कम नहीं। इनकी रचनाओं में भक्ति की मम-स्पर्शिनी मधुरता नहीं पायी जाती । परन्तु उनका मानसिक उद् गार ओजस्वो है, जिसमें मनस्विता को पूरी मात्रा मिलती है। प्रेम के जिस सरस उद्यान में घूम कर रसखान और घन आनन्द बड़े सुन्दर कुसुम चयन कर सके उसमें इनका प्रवेश जैसा चाहिये वेसा नहों । इनको रचना में संस्कृत तत्सम शब्दों का बाहुल्य है मैं समझता हूं. वह वर्त मान खड़ी बोली के रूप की पूर्व सूचना है।