सामग्री पर जाएँ

पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४५०

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(४३६)


३— कबहूं मिलिबो कबहूं मिलिबो
यह धीरज ही में धरैबो कर।
उर ते कढ़ि आवै गरेते फिरै
मन की मन ही में सिरैबाे करै।
कवि बोधा न चाव सरो कबहूं
नितहूं हरबा सो हरैबो करै।
सहतेइ बनै करते न बनै
मन ही मन पीर पिरैबो करै।
हिलि मिलि जानै तासों मिलि कै जनावै हेत,
हित को न जानै ताको हितू न बिसारिये।
होय मगरूर तापै दूनी मगरूरी कीजै
लघु चलै जो तासों लघुता निबाहिये।
बोधा कवि नीति को निवेरो यही भांति अहै
आप को सराहै ताहि आप हूं सराहिये।
दाता कहा सूर कहा सुन्दर सुजान कहा
आप को न चाहै ताके बाप को न चाहिये।

रसनिधि का मुख्य नाम पृथ्वी सिंह था वे दतिया राज्य के एक जागीर दार थे। उनका रचा हुआ 'रतन हज़ारा' नामक एक ग्रंथ है। यह विहारी सतसई के अनुकरण से लिखा गया है। बिहारी के दोहों से टक्कर लेने की इसमें चेष्टा की गई है। किन्तु कवि को इसमें सफलता नहीं प्राप्त हुई। उनके कुछ दोहे अवश्य सुन्दर हैं। उन्होंने 'अरिल्लों' और 'माझों' की भी रचना की है, वे भी संगृहीत हो चुके हैं। उनके कुछ स्फुट दोहे भी हैं। वे शृंगार रस के ही कवि थे। अन्य रसों की ओर उनकी दृष्टि कम गयी। महंत सीतल की तरह वे मी फ़ारसी के शब्दों, मुहावरों, उपमाओं और मुस्लिम संसार के आदर्श पुरुषों के भी प्रेमी थे अपनी रचनाओं में यथा