९—जेहि मग दौरत निरदई तेरे नैन कजाक।
तेहि मग फिरत सनेहिया किये गरेबां चाक।
१०—लेउ न मजनूं गोर ढिग कोऊ लैला नाम।
दरदवंत को नेक तौ लैन देउ बिसराम।
इन पदों में से छठे दोहे का उत्तरार्द्ध अक्षरशः बिहारीलाल के दोहे से ग्रहण कर लिया गया है। नवें दोहे में 'गरेवां चाक' बिलकुल फ़ारसी का मुहावरा है। दसवें दोहे में लैला मजनूं मुस्लिम संसार के प्रेमी और प्रेमिका हैं, जिनकी चर्चा कवि ने अपनीं रचना में की है। व्रजभाषा के नियमों का भी इन्होंने कहीं कहीं त्याग किया है। चौथे दोहे के 'तोर' पांचवें दोहे के 'जान' और आठवं दोहे का 'लग लग' शब्दों के अन्तिम अक्षरों को व्रजभाषा के नियमानुसार इकार युक्त होना चाहिये। कवि ने ऐसा नहीं किया। दसवें दोहे का 'दरदवंत' शब्द भी इन्होंने गढ़ लिया है। 'दरद' फ़ारसी शब्द है और 'वंत' संस्कृत प्रत्यय है इन दोनों को मिला कर जो कर्तृवाचक संज्ञा बनायी गई वह उनकी निरंकुशता है। इस प्रकार की शब्द-रचना युक्ति-संगत नहीं। उनकी रचना में इस तरह की बातें अधिकतर पायी जाती हैं। फिर भी वह आदरणीय कही जा सकती है।
इम शताब्दी के नीतिकार कवि, वृन्द, वैताल, गिरधर कविराय और घाघ हैं। इनकी रचनाओं ने हिन्दी संसार में नूतनता उत्पन्न की है, अच्छे अच्छे उपदेशों और हितकर वाक्यों से उसे अलंकृत किया है। इसलिये मैं इन लोगों के विषय में भी कुछ लिख देना आवश्यक समझता हूं। इस उद्देश्य से भी उन लोगों के विषयमें कुछ लिखने की आवश्यकता है, जिससे यह प्रकट हो सके कि अट्ठारहवीं शताब्दी में कुछ ऐसे नीतिकार कवि भी हुये जिन्होंने अपना स्वतन्त्रा पथ रक्खा, फिर भी उनकी रचनामें व्रजभाषा का पुट पाया जाता है। समाज के लिये नीति सम्बन्धी शिक्षा की भी यथा समय आवश्यकता होती है। इन कवियोंने इस बातको समझा और साहित्य के इस अंग की पूर्ति की, इस लिये भी उनकी चर्चा यहाँ आवश्यक है।