वृन्द औरंगज़ेब के दरबारी कवि थे। यह देखा जाता है कि अकबर के समय से ही मुग़ल सम्राटों के दरबार में कुछ हिन्दी कवियों का सम्मान होता आया है। अकबर के बाद जहांगीर और शाहजहां के दरबारों में भी हिन्दी-सत्कवि मौजूद थे। इसी सूत्र से औरंगज़ेब के दरबार में भी वृन्द का सम्मान था। औरंगज़ेब के पौत्र अज़ीमुश्शान ने व्रजभाषा और उर्द दोनों में अच्छी रचनायें की हैं। वृन्द प्रायः उन्हीं के साथ रहते थे। अज़ीमुश्शान बंगाल, बिहार एवं उड़ीसे का सूबेदार था। वह ढाके में रहता था और वृन्द को भी अपने साथ ही रखता था। बिहारी लाल ने यदि शृंगार रस की सतसई बनाई तो वृन्द ने नीति सम्बन्धी विषयों पर सतसई की रचना कर व्रजभाषा को एक उपयोगी उपहार अर्पण किया। कहा जाता है कि वृन्द संस्कृत और भाषा के विद्वान थे और गौड़ ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुये थे। वे कृष्णगढ़ के राजा राजसिंह के गुरु थे; मारवाड़ प्रांत उनका जन्म स्थान था। वृन्दके तीन ग्रंथ बतलाये जाते हैं, 'शृंगार शिक्षा', 'भावपंचाशिका' और 'वृन्द सतसई'। प्रधानता वृन्द सतसई को ही प्राप्त है, यही उनका प्रसिद्ध ग्रंथ है। उनकी रचनायें सरस एवं भावमयी हैं और कोमल शब्दों में की गया है। उनका वाच्यार्थ प्रांजल है और कथन-शैली मनाेहर। उपयोगिता की दृष्टि में वृन्द सतसई आदरणीय ग्रन्थ है, उसका यथेष्ट सम्मान हुआ भी। ग्रन्थ की भाषा साहित्यिक व्रजभाषा है। नीति विषयक रचना होने पर भी वह कवितागत विशेषताओं से रहित नहीं है। कुछ पद्य देखिये:—
१— जो कछु वेद पुरान कही
सुन लीनीसबैजुग कान पसारे।
लोकहुं में यह ख्यात प्रथा छिन में
खल कोटि अनेकन तारे।
वृन्द कहै गहि मौन रहे किमि हाें
हठि कै बहु बार पुकारे।