गुरु बिन मिले न ज्ञान द्रब्य बिन मिलै न आदर।
बिना पुरुष श्रृंगार मेघ बिन कैसे दादुर।
बैताल कहै विक्रम सुनो बोल बोल बोली हटे।
धिक्क धिक्क ता पुरुष को मन मिलाइ अन्तर कटे।
चिन्हित शब्दों और वाक्यों को देखिये। उनसे ज्ञात हो जावेगा कि जो दोष मैंने उनकी रचना में बतलाये हैं, वे सब उनमें विद्यमान हैं। फिर भी उपयोगिता-दृष्टि से बैताल की रचना सम्मान योग्य है।
गिरधर कविराय इस शताब्दी के तीसरे नीतिकार हैं। इन्हों ने अपनी प्रत्येक कुंडलिया के अन्त में अपने को गिरधर कविराय लिख कर प्रकट किया है। कविराय शब्द यह बतलाता है कि वे जाति के ब्रह्मभट्ट थे। किसी दरबार से इनका सम्बन्ध नहीं पाया जाता। यदि हो भी तो इस विषय में कहीं कुछ लिखा नहीं मिलता। जिस भाषा में उन्हों ने अपनी रचनायें की हैं उससे ये अवध प्रान्त के मालूम होते हैं। इनकी भाषा में खड़ी बोली, अवधी (बैसवाड़ी) और व्रजभाषा तीनों का मेल है। भाषा का झुकाव अधिकतर अवधी की ओर है। ये अनगढ़ और भद्दे शब्दों का प्रयोग भी कर जाते हैं, जिससे भाषा प्रायः कलुषित हो जाती है। ये सब दोष होने पर भी इनमें सीधे सादे शब्दों में यथार्थ बात कहने का अनुराग पाया जाता है, जो गुण है। इसी से इनकी रचनायें अधिकतर प्रचलित भी हैं। इस कवि का उद्देश्य जनता में नीति-सम्बन्धी बातों का प्रचार करना ज्ञात होता है। इसलिये उसने ठेठ ग्रामीण शब्दों के प्रयोग करने में भी संकोच नहीं किया। इनका कोई प्रन्थ नहीं मिलता। स्फुट रचनायें हो पायी जाती हैं जो कुछ लोगों के कण्ठ-से सुनी जाती हैं। जो पठित नहीं हैं उनके मुख से भी कभी कभी कविरायजी की कुंडलिया सुन पड़ती है। इससे उनकी रचना को व्यापकता प्रकट होतो है। यह तो नहीं कहा जा सकता कि सन्तों को बानियों के समान उनकी रचना में भी साहित्यिकता नहीं मिलती, किन्तु यह सत्य