पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४६८

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अब तुमते ससि डरपत भारी।
कहत अहो हरि सरन तुम्हारी।
बिरुझाने सोये दै तारी।
लिय लगाय छतियां महतारी।
लै पौढ़ाये सेज पर हरि को जसुमति माय।
अति बिरुझाने आज हरि यह कहि कहि पछिताय।

देखिये इस पद्य में वालभाव का अथच माता के प्यार का कितना स्वाभाविक वर्णन है। निस्सन्देह, यह प्रवाह सूर-सागर से आया है। परन्तु उसको अपने ढंग से प्रवाहित कर व्रजवासी दास ने बहुत कुछ सहृदयता दिखलायी है और यही उनका निजस्व है। जो लोग सूर-सागर में धँस कर उसका पूर्ण आनन्द लाभ करने के अधिकारी नहीं हैं उनके लिये व्रजविलास की रचना है जो सर्व साधारण के हृदय में चिरकाल से आनन्द रस-धारा बहाती आयी है।

मधुसूदन दास माथुर चौबे थे इन्होंने 'रामाश्वमेध' नामक एक बड़ा मनोहर प्रबन्ध काव्य लिखा है, इसको संस्कृत रामाश्वमेध का अनुवाद नहीं कह सकते। यह अवश्य है कि उसी के आधार से इस ग्रंथ की रचना हुई है। परन्तु मधुसूदन दास ने अनेक स्थानों पर स्वतंत्र पथ भी ग्रहण किया है। उनके इस ग्रन्थ को हम रामचरित मानस का परिशिष्ट कह सकते हैं रामाश्वमेधकार ने राम चरित मानस का ही अनुकरण किया है और उसमें अधिकतर सफलता लाभ की है। उनकी यह रचना कहीं कहीं रामचरित मानस की भाषा से इतनी मिल जाती है कि वह ठीक गोस्वामी जी की कृति जान पड़ती है। अवधी भाषा ही में यह ग्रंथ लिखा गया है। परन्तु गोस्वामी जी की रचना के समान उसमें भी संस्कृत के तत्सम शब्द अधिक आते हैं। उनकी भाषा को हम परिमार्जित अवधी कह सकते हैं, जिसमें कहीं कहीं गोस्वामी जी के समान ही व्रजभाषा का पुट पाया जाता है। इस ग्रंथ का प्रचार बहुत कम हुआ, परन्तु ग्रंथ सुंदर और पठनीय हैं। इसके कुछ पद्य देखिये :—