पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४६९

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सिय रघुपति पद कंज पुनीता।
प्रथमहि वंदन करौं सप्रीता।
मृदु मंजुल सुन्दर सब भाँती।
ससि कर सरिस सुभग नखपाँती।
प्रणत कल्पतरु त सब ओरा।
दहन अज्ञ तम जन चित चोरा।
त्रिविध कलुष कुंजर घनघोरा।
जग प्रसिद्ध केहरि बरजोरा।
चिंतामणि पारस सुर धेनू।
अधिक कोटि गुन अभिमत देनू।
जन मन मानस रसिक मराला।
सुमिरत भंजन विपति बिसाला।

इस शताब्दी में निर्गुण बादियों में चरन दास का नाम ही अधिक प्रसिद्ध है। उनके बाद उनकी शिष्या सहजोवाई और दयाबाई का नाम लिया जा सकता है। चरन दास जी राजपुताना-निवासी थे। कहा जाता है कि उन्नीस वर्ष की अवस्था में उनको वैराग्य हो गया था। वे वाल ब्रह्मचारी थे। उनके शिष्यों की संख्या बावन बतलायी जाती है। उनकी बावन गद्दियां अबतक वर्त्तमान हैं। उनके पंथवाले चरन दासी कहलाते हैं। उनके दो ग्रन्थ मिलते हैं, एक का नाम है 'ज्ञान स्वरोदय' और दूसरे का 'चरन दास की बानी' दादूदयाल का जो सिद्धान्त था लगभग वही सिद्धान्त उनका भी था। कबीर पंथ की छाया भी उनके पंथ पर पड़ी है। वे भो एक प्रकार से अपठित थे उनकी भाषा भी संत बानियों की सी ही है। उसमें किसी भाषा का विशेष रंग नहीं। परन्तु व्रजभाषा के शब्द उसमें अधिक मिलते हैं और कहीं कहीं राजस्थानी की झलक भी दृष्टिगत होती है। 'स्वरोदय' की रचना जटिल हैं। उसमें संस्कृत के तत्सम शब्द भी अधिक आये हैं, और वे कहीं कहीं उसमें अव्यवस्थित रूप में पाये