पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४७७

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७- पात बिन कीन्हें ऐसी भांति गन बेलिन के
परत न चीन्हें जे ये लरजत लुंज हैं ।
कहै पदमाकर विसासी या बसन्त के सु
ऐसे उतपात गात गोपिन के भुंज हैं ।
ऊधो यह सूधो सो सँदेसो कहि दीजो भलो
हरि सों हमारे ह्यां न फूले बन कुज हैं।
किंसुक गुलाब कचनार औ अनारन की
डारन पै डोलत अँगारन के पुंज हैं ।

८- संपति सुमेर की कुबेर की जो पावै ताहि
तुरत लुटावत बिलम्ब उर धारै ना ।
कहै पदमाकर सुहेम हय हाथिन के
हलके हजारन के बितर बिचारै ना ।
दोन्हें गज बकस महीप रघुनाथ राय
याहि गज धोखे कहूं काहू, देह डारै ना।
याहि डर गिरिजा गजानन को गोय रही
गिरि ते गरे ते निज गोद ते उतारै ना ।

९- झांकति है का झरोखा लगो
लगि लागिबे को इहां फेल नहीं फिर ।
त्यों पदमाकर तीखे कटाछनि की
सर कौ सर मेल नहीं फिर ।
नैनन ही की घलाघल के घन
घावन को कछु तेल नहीं फिर ।