पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४८७

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१-संपति करन और दारिद दरन सदा
कष्ट के हरन भव तारन तरन हैं ।
भौन के भरन चारों फल के फरन
महाताप के हरन असरन के सरन हैं।
भक्त उद्धरन और विघन हरन सदा
जनम मरन महादुख के दरन हैं ।
गोबिंद कहत ऐसे बारिज बरन बर
मोद के करन मेरे प्रभु के चरन हैं ।
२- दाहिबो सरीर अरु लहिबो परमपद
चाहिबो छनिक माहिं सिंधुपार पाइबो।
गहिबो गगन अरु बहियो बयारि संग
रहिबो रिपुन संग त्रास नहिं लाइबो।
सहियो चपेट सिंह लहिबो भुजंग मनि
कहिबो कथन अरु चातुर रिझाइबो ।
गोबिॅंद कहत मोई सुगम सकल
पर कठिन कराल एक नेह को निभाइबो।

प्रताप साहि बंदोजन थे। और चरखागे के महाराज विक्रम शाह के दरबारी कवि थे। इन्होंने आठ-दस ग्रथा की रचना की है, जिनमें से अधिकतर साहित्य संबंधी हैं। व्यंग्यार्थ कौमुदी नामक एक ध्वनि-सम्बन्धी प्रन्थ भी इनका लिखा हुआ है जो अधिक प्रशंसनीय है। कहा जाता है कि रीति ग्रन्थों के अन्तिम आचार्य ये ही हैं : साहित्य में इनका ज्ञान वि- स्तृत था । इसलिये हिन्दी में साहित्य-विषयक जो न्यूनतायं थीं उनको उन्होंने पूरी करने की चेष्टा की और बहुत कुछ सफलना भी लाभ की। इनकी भाषा सरस ब्रज भाषा है। साथ ही वह बड़ी भावमयी है । कोमल