'आनंद रघुनंदन' नामक एक नाटक भी बनाया है। छोटे मोटे कई प्रबन्ध प्रन्थ भी लिखे हैं । अपने पिता के समान इन्होंने भी अनेक धाम्मि्ग्रन्थों की रचना की है । इन्होंने संस्कृत में भी ग्रन्थ लिखे हैं उनमें से 'राधाव- ल्लभी भाष्य', 'सर्व सिद्धांत' आदि अधिक प्रसिद्ध हैं। इन्होंने भी कविता रचने में पिता का ही अनुकरण किया है । परंतु इनकी भाषा उतनो ललित नहीं है। संयुक्त वर्ण भी इनकी रचना में अधिक आये हैं । फिर भी इनकी अधिकतर कवितायें मनोहर हैं । एक पद्य दग्विये:-
१-बाजी गज सोर रथ सुतुर कतार जेते,
प्यादे ऐंडवारे जे सबीह सरदार के।
कुँवर छबीले जे रसीले राजवंम वारे,
सृर अनियारे अति प्यारे सरकार के ।
केते जातिवारे केते केते दसवारे जीव,
स्वान सिंह आदि सैल वारे जे सिकार के।
डंका की धुकार है सवार सबै एकैबार
राजै वार पार बीर कोमल कुमार के ।
महाराज ग्घुराज सिंह में पिता न पितामहृ का गुण अधिक है। इनकी कितनी ही रचनायें बड़ी सरस हैं ! इन्होंने भी अनेक ग्रन्थों की रचना की है. जिसमें 'आनन्द्रांबुनिधि' जैसे विशाल ग्रंथ भी हैं। वंशपरम्परा से यह राज्य कवियों का कल्पतरू रहा है। महाराज रघुराज सिंह के आश्रय में भी अनेक कवि थे. जो उनके लिये कल्पतरु के समान ही कामद थे। आनंदांधुनिधि श्रीमदृभागवत का अनुवाद है। मैंने बाल्यावस्था में इस ग्रन्थ का कई पारायण किया है । इस ग्रंथ की भाषा चलती और सुन्दर है। इनका भक्ति भाव अपने पिता पितामह के समान ही मधुर और स्निग्ध था उसी की स्निग्धता और माधुरी इनकी रचनाओं में पायी जाती हैं। इन्होंने भी साहित्यिक ब्रजभाषा ही लिखी है, जिसमें यत्र नत्रा अवधी का पुट मी पाया जाता है। उनके ग्रन्थों की संख्या जब देखी जाती है और कई वि-