पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/४९५

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४-केहरि को अभिषेक कब कीन्हों विप्र समाज ।
निज भुजबल के तेज ते विपिन भयो मृगराज।
५-नाहीं भूलि गुलाब तृ गुनि मधुकर गुंजार ।
यह बहार दिन चार को बहुरि कटीली डार ।
बहुरि कटीली डार होहिगी ग्रीषम आये।
लवैं चलेंगो मंग अंग सब जैसैं ताये ।
बरने दीन दयाल फूल जो लौ तो पाहीं।
रहे वेरि चटुं फेर फेरि अलि ऐहें नाहीं ।
६-चारों दिमि मुझे नहीं यह नद धार अपार ।
नाव जर्जरी भार बहु खेवनहार गँवार ।
खेवनहार गँवार नाहि पै है मतवारो ।
लिये भॅंवर में जाय जहां जल जंतु अखारो ।
बरनै दीन दयाल पथी बहु पौन प्रचारो।
पाहि पाहि रघुबीर नाम धरि धार उचारो।

उन्नीसवीं शताब्दी के पूव्वाध्द॔ में बुछ ऐसे कवि भी हुये है जो न तो गेति ग्रंथकार हैं न प्रबंधकार बग्न प्रेम भार्गी हैं अथवा श्र्ंगारिक कवि । उनकी संख्या बहुत बड़ी है, परंतु मैं उनमें से कुछ विशेषना-प्राप्त सहृदयों का ही उल्लेख करूंगा. जिसमें यह ज्ञात हो सके कि उन्होंने अपनी रच- नाओं द्वारा किस प्रकार हिन्दी साहित्य को अलंकृत किया। इन लोगों में से सब से पहिले हमारे सामने ठाकुर कवि आते हैं। ठाकुर तीन हो गये हैं। इनमें से दो ब्रह्मभट्ट थे, और एक कायस्थ। अमनी के रहनेवाले प्राचीन ठाकुर सत्रहवीं सदी के अन्त में या अठारहवीं के आदिमें पड़ते हैं। इन तीनों ठाकुरों की रचनायें एक दृमर के साथ इतनी मिल गयी हैं कि इनको अलग करना कठिन है। तीनों ठाकुगों की सवेयाओं में कुछ ऐसी मधुरता है कि वह अपनी ओर हृदय को खींच लेती है. इससे अनेक सहृ-