वह मन्द चलै किन भोरी भटू
पग लाखन की अँखियाँ अटकी।
गिरधरदास का मुख्य नाम गोपाल चन्द्र था। आप भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के पिता थे। इन्होंने चालीस ग्रन्थ बनाये, जिनके आधार से बाबू हरिश्चन्द्रजी की यह गर्वोक्ति है:--
जिन पितु गिरिधर दासने रचे ग्रन्थ चालीस ।
ता सुन श्री हरिचन्द को को न नवावै सीस ।
ग्रन्थों की संख्या अवश्य बड़ी है, पर अधिकांश ग्रन्थ छोटे और स्तोत्र- मात्र हैं। 'जरासन्ध-वध' महाकाब्य बड़ा ग्रन्थ है, परन्तु अधुरा है। इनकी अधिकांश रचनायें नेतिक हैं और उनमें सदाचार आदि को अच्छी शिक्षा है। इनकी भाषा ब्रजभाषा है, परन्तु उसे हम टकसाली नहीं कह सकते। इनकी रचना जितनी युक्तिमयी है उतनी ही भावमयी। युक्तियां उत्तम हैं, परन्तु उनमें उतना सस्मता और मधुरता नहीं। कहीं कहीं रचना बड़ी जटिल है. फिर भी यह कहा जा सकता है कि हिन्दी देवी की अर्चा इन्हों ने सुन्दर सुमनों से की है। इनके कुछ पद्य देग्वियेः-
१- सब के सब केसव केसव के हित के
गज सोहले सोभा अपार है।
जब मैलन मैलन ही फिरै मैलन
मैलन सैलहिं सीस प्रहार है।
गिरिधारन धारन सों पद के
जल धारन लै बसुधारन कार है।
अरि बारन बारन पै सुर बारन
बारन बारन बारन बार है ।
२-बातन क्यों समुझावत हो मोहि
मैं तुमरो गुन जानति राधे ।