पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५०६

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(४६२)

प्रीति नई गिरधारन सों भई
कुंज में रीति के कारन साधे।
घूंघट नैन दुरावन चाहति दौरति
सो दुरि ओट ह्वै आधे।
नेह न गोयो रहै सखि लाज सों
कैसे रहै जल जाल के बाँधे।
३— जाग गया तब सोना क्या रे।
जो नरतन देवन को दुरलभ
सो पाया अब रोना क्या रे।
ठाकुर से कर नेह आपना
इंद्रिन के सुख होना क्या रे।
जब बैराग्य ज्ञान उर आया
तब चाँदी औ सोना क्या रे।
दारा सुवन सदन में पड़ि कै
भार सबों का ढोना क्या रे।
हीरा हाथ अमोलक पाया
काँच भाव में खाेना क्या रे।
दाता जो मुख माँगा देवे
तब कौड़ी भर दोना क्या रे।
गिरिधर दास उदर पूरे पर
मीठा और सलोना क्या रे।

उन्नीसवीं शताब्दी के पूर्व्वार्द्ध में कोई ऐसा निर्गुणवादी संत सामने नहीं आता जिसने अपने सम्प्रदाय में कोई नवीनता उत्पन्न की हो या जिसने ऐसी रचनायें की हो जिनका प्रभाव साहित्य पर ऐसा पड़ा हो जो