१— पलटू हम मरते नहीं ज्ञानी लेहु बिचार।
चारो जुग परलै भई हमहीं करनेहार।
हमहीं करनेहार हमहिँ कर्त्ता के कर्त्ता।
कर्त्ता जिसका नाम ध्यान मेरा ही धरता।
पलटू ऐना संत हैं सब देखै तेहि माँहिँ।
टेढ़ सोझ मुंह आपना ऐना टेढ़ा नाहिँ।
जैसे काठ में अगिन है फूल में है ज्यों बास।
हरिजन में हरि रहत हैं ऐसे पलटू दास।
सुनिलोपलटू भेद यह हँसिबोले भगवान।
दुख के भीतर मुक्ति है सुख में नरक निदान।
मरते मरते सब मरे मरै न जाना कोय।
पलटू जो जियतै सरै सहज परायन होय।
उन्नीसवीं शताब्दी का उत्तरार्द्ध ऐसा का है जिसमें बहुत बड़े बड़े परिवर्त्तन हुये। मैं पहले इस विषय में कुछ लिख चुका हूं। परिवर्त्तन क्यों उपस्थित होते हैं, इस विषय में कुछ अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं। किन्तु मैं यह बतलाऊंगा कि उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में राजनीतिक धार्मिक और सामाजिक अवस्था क्या थी। मुसल्मानों के राज्य का अन्त हो चुका था और ब्रिटिश राज्य का प्रभाव दिन दिन विस्तार लाभ कर रहा था। अंगरेज़ी शिक्षा के साथ साथ योरोपीय भावों का प्रचार हो रहा था और 'यथा राजा तथा प्रजा' इस सिद्धान्त कें अनुसार भारतीय रहन-सहन-प्रणाली भी परिवर्तित हो चली थी। अंगरेज़ों का जातीय भाव बड़ा प्रबल है। उनमें देश प्रेम को लगन भी उच्चकोटि की है। विचार स्वातंत्र्य उनका प्रधान गुण है। कार्य्य को प्रारम्भ कर उसको दृढ़ता के साथ पूर्ण करना और उसे बिना समाप्त किये न छोड़ना यह उनका जीवन व्रत है। उनके समाज में स्त्री जाति का उचित आदर है, साथ ही पुरुषों के समान उनका स्वत्व भी स्वीकृत है। वृटिश राज्य के संसर्ग