से और अंगरेजी भाषा की शिक्षा पाकर ये सब बातें, और इनसे सम्बन्ध रंखनेवाले और अनेक भाव इस शताब्दी के उत्तरार्द्ध में और प्रान्तों के साथ साथ हमारे प्रान्त में मी अधिकता से फैले। स्वामी दयानंद सरस्वती ने आर्यसमाज का डंका बजाया, और हिन्दुओं में जो दुर्बलतायें रूढ़ियां और मिथ्याचार थे उनका विरोध सवल कण्ठ से किय। इन सब बातों का यह प्रभाव हुआ कि इस प्रकार के साहित्य की देश को आवश्यकता हुई जो कालानुकूल हो और जिसमे हिन्दु समुदाय की वह दुर्बलतायें दूर हो जिनसे उसका प्रतिदिन पतन हो रहा था। यही नहीं, इस समय यह लहर भी बेग से सब ओर फैली कि किस प्रकार देशवासी अपने कर्त्तव्यों को समझे और कौनमा उद्योग करके वे भी वैसे ही बनें जैसे योरोप के समुन्नत समाजवाले हैं। कोई जाति उसी समय जीवित रह सकती है जब वह अपने को देशकालानुसार बना ले और अपने को उन उन्नतियों का पात्र बनावे जिनसे सब दुर्बलताओं का संहार होता है, और जिनके आधार से लोग सभ्यता के उन्नत सोपानों पर चढ़ सकते हैं। इन भावों का उदय जब हृदयों में हुआ नत्र इस प्रकार की साहित्य-सृष्टि की ओर समाज के प्रतिमा-सम्पन्न विवुधों की दृष्टि गयी और वे उचित यत्न करने के लिये कटिवद्ध हुए। अनेक समाचार-पत्र निकले और विविध पुस्तक-प्रणयन द्वारा भी इष्ट-सिद्धि का उद्योग प्रारम्भ हुआ।
बाबू हरिश्चन्द्र इस काल के प्रधान कवि हैं। प्रधान कवि ही नहीं, हिन्दी साहित्य में गद्य को सर्व-सम्मत और सर्व-प्रियशैली के उद्रावक भी आप ही हैं। हम इस स्थान पर यही विचार करेंगे कि उनके द्वारा हिन्दी पद्य में किन प्राचीन भावों का विकास और किन नवीन भावों का प्रवेश हुआ। बाबू हरिश्चन्द्र महाप्रभु वल्लभाचार्य्य के सम्प्रदाय के थे। इसलिये भगवान् श्रीकृष्णचन्द्र और श्रीमती राधिका में उनका अचल अनुराग था। इस सूत्र से वे व्रजभाषा के भी अनन्य प्रेमी थे। उनकी अधिकांश रचनायें प्राचीन शैली की हैं और उनमें राधाकृष्ण का गुणानुवाद उसी भक्ति और श्रद्धा के साथ गाया गया है जिसमें अष्टछाप के वैष्णवों की रचनाओं को महत्ता प्राप्त है। उन्हों ने न तो कोई रीति ग्रंथ लिखा है और न कोई