प्रबंध-काव्य। कितु उनकी स्फुट रचनायें इतनी अधिक हैं जो सर्वतोमुखी प्रतिभावाले मनुष्य द्वारा ही प्रस्तुत की जा सकती हैं।
उन्होंने हाेलियों पर्वाें, त्याहारों और उत्सवों पर गाने योग्य सहस्त्रों पद्यों की रचना की है। प्रेम-रस से सिक्त ऐसे ऐसे कवित्त और सवेये बनाये हैं जो बड़े ही हृदयग्राही हैं। जितने नाटक या अन्य गद्य ग्रन्थ उन्होंने लिखे हैं, उन सब में जितने पद्य आये हैं वे सब व्रजभाषा ही में लिखे गये हैं। इतने प्राचीनता प्रेमी होने पर भी उनमें नवीनता भी दृष्टि गत होती है। वे देश दशा पर अश्रु बहाते हैं, जाति-ममता का राग अलापते हैं, जाति को दुर्घटनाओं की ओर जनता को दृष्टि आकर्षित करते हैं, और कानों में वह मन्त्र फुंकते है जिससे चिरकाल की बंद आँखें खुल सके उनके 'भारत-जननी' और 'भारत दुर्दशा' नामक ग्रन्थ इसके प्रमाण हैं। बाबू हरिश्चन्द्र ही वह पहले पुरुष हैं जिन्हों ने सर्व प्रथम हिन्दी साहित्य में देश-प्रेम और जाति ममता की पवित्र धारा बहायी। वे अपने समय के मयंक थे। उनकी उपाधि 'भारतेन्दु' है। इस मयंक के चागे ओर जो जगमगाते हुये तारे उस समय दिखली पड़े, उन सबों में भी उनकी कला का विकास दृष्टिगत हुआ। सामयिकता की दृष्टि से उन्हों ने अपने विचारों काे कुछ उदार बनाया। और ऐसे भावों के भी पद्य बनाये जो धार्मिक संकीर्णता को व्यापकता में परिणत करते हैं। 'जैन-कुतूहल' उनका ऐसा ही ग्रंथ है। उनके समय में उर्दू शाइरी उत्तरोत्तर समुन्नत हो रही थी। उनके पहले और उनके समय में ऐसे उर्दू भाषा के प्रतिभाशाली कवि उत्पन्न हुये जिन्होंने उसको चार चाँद लगा दिये। उनका प्रभाव भी इन पर पड़ा और इन्होंने अधिक उदू शब्दों को ग्रहणकर हिन्दी में 'फूलों का गुच्छा' नामक ग्रंथ लिखा जिसमें लावनियाँ हैं जो खड़ी बाेली में लिखी गयी है। वे यद्यपि हिन्दी भाषा ही में रचित हैं, परंतु उनमें उर्दू का पुट पर्याप्त है। यदि सच पूछिये तो हिन्दी में स्पष्टरूप से खड़ी बोली रचना काप्रारम्भ इसी ग्रन्थ से होता है। मैं यह नहीं भूलताहूं कि यदि सच्चा श्रेय हिन्दी में खड़ी बोली की कविता पहले लिखने का किसी को प्राप्त है तो वे महंत सीतल हैं। वरन मैं यह कहता हूं कि इस उन्नीसवीं