पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५११

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शताब्दी में पहले पहल यह कार्य्य भारतेन्दु जी ही ने किया। कुछ लोग उसको उर्दू की ही रचना मानते हैं। परंतु मैं यह मानने के लिये तैयार नहीं। इसलिये कि जैसे हिन्दी भाषा और संस्कृत के तत्सम शब्द उसमें आये हैं वैसे शब्द उर्दू की रचना में आते ही नहीं।

बाबू हरिश्चन्द्र नवीनता-प्रिय थे और उनकी प्रतिभा मौलिकता से स्नेह रखती थी। इसलिये उन्होंने नई नई उद् भावनायें अवश्य कीं, परंतु प्राचीन ढंग की रचना ही का आधिक्य उनकी कृतियों में है। ऐसी ही रचना कर के वे यथार्थ आनन्द का अनुभव भी करते थे। उनके पद्यों को देखने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। उनके छोटे बड़े ग्रन्थों की संख्या लगभग १०० तक पहुंचती है। इनमें पद्य के ग्रन्थ चालीस पचास से कम नहीं हैं। परंतु ये समस्त ग्रन्थ लगभग व्रजमापा ही में लिखे गये हैं। उनकी भाषा सरस और मनोहर होती थी। वैदर्भी वृत्ति के ही वे उपासक थे। फिर भी उनकी कुछ ऐसी रचनायें हैं जो अधिकतर संस्कृत गर्भित हैं। वे सरल से सरल और दुरूह से दुरूह भाषा लिखने में सिद्धहस्त थे। ग़ज़ले भी उन्होंने लिखी हैं, जो ऐसी हैं जो उर्दू के उस्तादों के शेरों की समता करने में समर्थ हैं। मैं पहले कह चुका हूं कि वे प्रेमी जीव थे। इसलिये उनकी कविता में प्रेम का रंग बड़ा गहरा है। उनमें भक्ति भी थी और भक्तिमय स्तोत्र भी उन्होंने अपने इष्टदेव के लिखे हैं, परंतु जैसी उच्च कोटि की उनकी प्रेमसम्बन्धी रचनायें हैं वैसी अन्य नहीं। उनकी कविता को पढ़ कर यह ज्ञान होता है कि उनकी कवि-कृति इसी में अपनी चरितार्थता समझती है कि वह भरावल्लीला-मयी हो। वे विचित्र स्वभाव के थे। कभी तो यह कहते:—

जगजिन तृण सम करि तज्याे अपने प्रेम प्रभाव।
करि गुलाब सों आचमन लीजंन वाको नाँव।
परम प्रेम निधि रसिकबर अति उदार गुनखान।
जग जन रंजन आशु कवि को हरिचंद समान।

कभी सगर्व होकर यह कहते—