पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५१३

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३— जानि सुजान हौं नेह करी सहि कै
बहुभाँतिन लोक हँसाई।
त्यों हरिचंद जू जो जो कह्यो।
सो कर्यो चुपह्वै करि काटि उपाई।
सोऊ नहीं निवही उन सों
उन ताेरत बार कछू न लगाई।
साँची भई कहनावतिया अरी
ऊँची दुकान की फीकी मिठाई।
४— आजु लौं जौन मिले तो कहा
हम तौ तुम्हरे सब भाँति कहावैं।
मेरो उराहनाे है कछु नाहिं सबै
फल आपने भाग को पावैैं।
जो हरिचंद भई मो भई अब
प्रान चले चहैं याते सुनावैं।
प्यारे जू है जग की यह रीति
विदा के समै सब कंठ लगावैं।
५— पियारी पैये केवल प्रम में
नाहि ज्ञान मैं, नाहिं ध्यान मैं, नाहि करम कुल नेम मैं।
नहिँ मंदिर मैं नहिँ पूजा मैं नहिँ घंटा की घोर में।
हरीचंद वह बाँध्यां डाेलै एक प्रेम की डोर मैं।
६— सम्हारहु अपने को गिरिधारी।
मोर मुकुट सिरपाग पेच कमि राखहु अलकसँवारी।
हिय हलकत बनमाल उठावहु मुरली धरहु उतारी।