पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५१५

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लोल लहर लहि पवन एक पै इक इमि आवत।
जिमि नर गन मन विविध मनोरथ करत मिटावत।
१०— तरनि तनूजा तट तमाल तरुवर बहुछाये।
झुके कूल सों जल परसन हित मनहुं सुहाये।
किधौं सुकुर मैं लखत उझकि सब निज निज सोभा।
के प्रनवत जल जानि परम पावन फल लोभा।
मनु आतप वारन तीर को सिमिटि सबै छाये रहत।
कै हरि सेवा हित नै रहे निरखि नयन मन सुख लहत।

उनकी इस प्रकार की रचनायें भी मिलती हैं, जिनमें खड़ी बोली का पुट पाया जाता है। जैसे यह पद्य:—

डंका कूच का बज रहा मुसाफ़िर जागाे रे भाई।
देखो लाद चले पंथी सब तुम क्यों रहे भुलाई।
जब चलना ही निश्चय है तो लै किन माल लदाई।
हरीचंद हरिपद विनु नहिं तौ रहि जैहो मुंह बाई।

किंतु उनकी इस प्रकार की रचना बहुत थोड़ी है। क्योंकि उनका विश्वास था कि खड़ी बोल चाल में सरस रचना नहीं हो सकती। उन्हों ने अपने हिन्दी भाषा नामक ग्रंथ में लिखा है कि खड़ी बोली में दीर्धान्त पद अधिक आते हैं, इसलिए उसमें कुछ न कुछ रूखापन आही जाता है। इस विचार के होने के कारण उन्हाेंने खड़ी बोल चाल की कविता करने की चेष्टा नहीं की। किन्तु आगे चल कर समय ने कुछ और ही दृश्य दिखाया जिसका वर्णन आगे किया जावेगा। बाबू हरिश्चन्द्र जो रत्न हिन्दी भाषा के भाण्डार को प्रदान कर गए हैं वे बहुमूल्य हैं, यह वात मुक्त कंठ से कही जा सकती है।

पंडिन बदरीनारायण चौधरी बाबु हरिश्चन्द्र के मित्रों में से थे। दोनों के रूप रंग में समानता थी और हृदय में भी। दोनों ही रसिक थे और