दोनों ही हिन्दी भाषा के प्रेमी। दोनों ही ने आजन्म हिन्दी भाषा को सेवा की और दोनों ही ने उसको यथा शक्ति अलंकृत बनाया। दोनों ही अमीर थे और दोनों ही ऐसे हँसते मुग्घ, जो रोते को भी हँसादें। आज दोनों ही संसार में नहीं हैं, परन्तु अपनी कीर्ति द्वारा दोनों ही जीवित हैं। चौधरी जी की रचनायें अधिक नहीं हैं। किंतु जो हैं वे हिन्दी भाषा का श्रृंगार हैं। पंडित जी सरयूपारीण ब्राह्मण और प्रचुर सम्पत्ति के अधिकारी थे। फ़ारसी और संस्कृत का उन्हें अच्छा ज्ञान था, अंगरेज़ी भी कुछ जानते थे। उन्होंने मिर्ज़ापुर में रसिक, समाज आदि कई सभायें स्थापित कीथों और 'आनंदकादम्बिनी' नामक मासिक पत्रिका तथा 'नागरी-नीरद' नामक साप्ताहिक पत्र भी निकाला था। दोनों ही सुंदर थे और जब तक रहे अपने रस से हिन्दी संसार को सरस बनाते रहे। और क्याें न बनाते जब प्रेमधन उनके संचालक थे? धन आनंद के उपरांत कविता में चौधरी जी ने ही ऐसा सरस उपनाम अपना रक्खा जिसके सुनते ही प्रेम का धन उमड़ पड़ता है। आनंदी जीव थे और अपने रंग में सदा मस्त रहते थे इस लिए कुछ लोग यह समझते थे कि वे जैसा चाहिये वग्न मिलनसार नहीं थे। किन्तु ऐसा वेही कहते हैं जो उनके अंतरंग नहीं। वास्तवमें वे बड़े सहृदय और सरस थे और जिस समय जी खोलकर मिलते रस की वर्षा कर देते। उनकी रचनायें सब प्रकार की हैं। किंतु ग्रंथाकार बहुत कम छपीं। भारत-सौभाग्य नाटक उनका प्रसिद्ध नाटक है। जहां तक मुझे स्मरण है उन्होंने 'वैश्या-बिनोद' नामक एक महानाटक लिखा था। परंतु वह छप न सका और कदाचित पुरा भी नहीं हुआ। कुछ छोटी छोटी कवितायें उनकी छपी है, जो विशेष अवसरों पर लिखी जा कर वितरण की गयीं। उन्हों ने हिन्दी-साहित्य-सम्मेलन के सभापति-पद को भी सुशोभित किया था। सभापतित्व के पद से जो भाषण उन्हों ने दिया था वह बड़ा ही विद्वत्तापूर्ण था, वह छप भी चुका है। उनके बहुत से सुंदर लेख और कितना ही सरस कवितायें उनके सम्पादित पत्रों में मोजूद हैं। परन्तु दुःब है कि न तो अब तक उनका संकलन हुआ और न वे ग्रंथ रूप में परिणत हुये। उनकी अधिकांश रचनायें
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