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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५२३

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छल परपंच करत जग धूनत
दुख को सुख करि माना।
फिकिर वहाँ की तनक नहीं है।
अंत समै जहँ जाना।
मुख ते धरम धरम गुहरावत
करम करत मनमाना।
जो साहब घट घट की जानत
तेहि ते करत बहाना।
येहि मनुआ के पीछे चलि के
सुख का कहाँ ठिकाना।
जो परताप सुखद को चीन्हे सोई परम सयाना।

दो सवैयाओं को भी देग्विये :—

बनि बैठी है मान की मूरति सी, मुख खोलत बोलै न 'नाहीं' न 'हाँ'। तुमहीं मनुहारि कै हारि परे सखियान की कौन चलाई तहाँ। बरषा है प्रताप जू धीर धरौ अब लौं मन को समझायो जहाँ। यह व्यारि तबै बदलैगी कछू पपिहा जब पूछि है 'पीव कहाँ'। आगे रहे गनिका गज गोध सुतौ अब कोऊ दिखात नहीं है। पाप परायन ताप भरे परताप समान न आन कहीं है। हे सुखदायक प्रेम निधे जग यों तो भले औ बुरे सबही हैं। दीनदयाल औ दीन प्रभो तुमसे तुमहीं हमसे हमहीं हैं।

पंडित अम्बिका दत्त व्यास संस्कृत के प्रसिद्ध विद्वान थे। बाबू हरिश्चन्द्र आप को बहुत आदर की दृष्टि से देखते थे। बिहार प्रान्त में