पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५२५

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अम्बादत्त भाखैं अभिलाखैं क्यों करत झूठ
मूंदि गयीं आंखैं तब लाखैं कौन काम की।

वे साहित्याचार्य तो थे ही, 'भारतरत्न', 'बिहार भूषण', 'शतावधान' और 'भारत भूषण' आदि पदवियां भी उन्हें राजे-महाराजाओं तथा सनातन धर्म मण्डल दिल्ली से प्राप्त हुई थीं। उनको कितने ही स्वर्णपदक भी मिले थे। जब तक जीवित रहे, पटना कालेज की प्रोफ़ेसराे बड़ी ख्याति के साथ की। उनके जीवन का बहुत बड़ा काम यह है कि उन्होंने बिहार में 'संस्कृत-संजीवनी-समाज' नाम को एक संस्था स्थापित की थी। इस समाज के द्वारा संस्कृत की अनिमियत शिक्षा-प्रणाली का ऐसा सुधार हुआ कि अब भी उसको सहायता से सैकड़ों विद्यार्थी संस्कृत शिक्षा पा कर प्रतिवर्ष नाना उपाधियां प्राप्त करते हैं। संस्कृतके अतिरिक्त वे बँगला, मगठी, गुजगती और कुछ अंगरज़ी भी जानने थे। उनकी संस्कृत और हिन्दी की छोटा-बड़ी पुस्तकों की संख्या लगभग ७८ है, जिनमें 'बिहारी-बिहार' जैसे बड़े ग्रंथ भी हैं। बिहारी लाल के ७०० दाहों पर उन्होंने जो कुंडलियाँ बनायो थी, मुद्रित रूप में उन्हीं का नाम 'बिहारी-बिहार' है। इस ग्रंथ को भूमिका भी बड़ी विशद और सुन्दर है। उसी से इनके कुछ पद्य नीचे लिखे जाते हैं। इनका हिन्दी उपनाम सुकवि था :—

१— मेरी भव वाधा हरो राधा नागरि सोय।
जा तन की झाईं परे स्याम हरित दुति होय।
स्याम हरित दुति होय परत तन पीरी झाईं।
राधाहूँ, पुनि हरी होति लहि स्यामल छाईं।
नैन हरे लखि होत रूप औ रंग अगाधाे।
सुकवि जुगुल छवि धाम हरहु मेरी भव वाधा।
२— सोहत ओढ़े पीत पट स्याम सलोने गात।
मनो नील मनि सैल पर आतप पर्यो प्रभात।