सुन्दर स्वरूप था, वैसा ही सुंदर उनका हृदय भी था। हिन्दी भाषा के बड़े प्रेमी थे, इस भाषाका ज्ञान भी उन्हें अच्छा था। वे संस्कृत भी जानते थे। बाबू हरिश्चन्द्र से उनकी बड़ी मेत्री थी। बनारस के महल्ले रेशम कटरे की बड़ी संगत में आ कर वे प्रायः रहते थे और यहीं दोनोंका बड़ा सरस समागम होता था। बाबा सुमेर सिंह ब्रजभाषा की बड़ी सरस कविता करते थे। उन्होंने इस भाषा में एक विशाल प्रबंध काव्य लिग्बा था, जो लगभग नष्ट हो चुका है केवल उसका दशम मंडल अबतक यत्र-तत्र पाया जाता है इस ग्रंथ का नाम प्रेम-प्रकाश था। इसमें उन्हों ने सिक्खों के दश गुरुओं की कथा दश मंडलों में वृहत रूप से बड़ी ललित भाषा में लिखी थी। दशम मंडल में गुरु गोविन्द सिंह का चरित्र था। गुरुमुखी में वह मुद्रित हुआ ओर वही अब भी प्राप्त होता है। शेष नौ मण्डल कराल काल के उदर में समा गये। बहुत उद्योग करने पर भी न तो वे प्राप्त हो सके न उनका पता चला। उन्होंने 'कर्णाभरण' नामक एक अलंकार ग्रंथ भी लिखा था। अब वह भी अप्राप्य है। गुरु गोविंदसिंह ने फ़ारसी में जो 'ज़फ़रनामा' लिखा था उसका अनुवाद भी उन्हों ने 'विजय पत्र' के नाम से किया था। वह भी लापता है। उन्होंने संत निहाल सिंह के साथ दशम ग्रंथ माहब के जाप जी की बड़ी बृहत् टीका लिखी थी, जो बहुत ही अपूर्व था। वह मुद्रित भी हुई है, किंतु अब उसका दर्शन भी नहीं होता। उन्हों ने छोटे छोटे और भी कई ग्रंथ धार्मिक और रससम्बन्धी लिखें थे। परन्तु उनमें से एक भी अब नहीं मिलता। उन्होंने जिनने ग्रंथों की रचना की थी उन सब में हिन्दू भाव ओतप्रोत था और यही उनकी रचनाओं का महत्व था। आज कल कुछ सिख सम्प्रदायवाले अपने को हिन्दू नहीं मानते, वे उनके विरोधी थे। इसलिये भी उनके ग्रंथ दुष्प्राप्य हो गये। फिर भी उनकी स्फुट रचनायें 'सुंदरी तिलक' इत्यादि ग्रंथों में मिल जाती हैं। जब वे पटने में महन्त थे तो वहाँ से उन्होंने एक कविता-सम्बन्धी मासिक पत्रिका भो हिन्दी में निकाली थी। वह एक साल चल कर बन्द हो गयी। उसमें भी उनकी अनेक कवितायें अब तक विद्यमान हैं। उनकी दो कवितायें मुझे याद हैं। उनको मैं यहां लिखता
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