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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५२९

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कहना पड़ता है कि अपने उद्योग में सफलता लाभ करने के पहले ही उनका स्वर्गवास हुआ और उनके स्वर्गवास होने पर उनकी कविता का अधिकांश लोप हो गया। जो कुछ शेष है वह यद्यपि उनकी वास्तविक कीर्ति के विस्तार के लिये पर्याप्त नहीं है, फिर भी अब उसी पर संतोष करना पड़ता है। काल की लीला ही ऐसी है।

भारतेन्दु का काल गद्य के उत्थान का काल था। सामयिक आवश्यकताओं के कारण इस समय गद्य का बहुत अधिक प्रचार हुआ। इन दिनों अनेक पत्र पत्रिकायें निकलीं और गद्य की पुस्तकें भी अधिक छपी। स्कूलों एवं ग्रामीण पाठशालाओं केलिये कोर्स की बहुत अधिक पुस्तकें भी गद्य में ही लिखी गयीं। सनातन धर्म और आर्य्य समाज के विवाद के कारण अधिकतर वादसम्बन्धी ग्रन्थ भी गद्य में ही लिखे गये। इसी प्रकार बहुत सी सामाजिक और राजनीतिक पुस्तकों को भी गद्य का अवलम्बन ग्रहण करना पड़ा, क्योंकि पद्य द्वारा ये सब कार्य न ता व्यापक रूप से किये जा सकते थे और न वह सुविधा ही प्राप्त हो सकती थी जो गद्य द्वारा प्राप्त हो सकी। पश्चिमोत्तर प्रांत में ही नहीं, बिहार मध्यभारत और पंजाब तक में हिन्दी भाषा का विस्तार इन दिनों हुआ और इसका आधार गद्य ही था। जितनी हिन्दी पत्र पत्रिकायें इन प्रांतों में निकली या जो ग्रन्थ आवश्यकतानुसार लिखे गये उनमें से अधिकांश का आधार भी गद्य ही था। इसलिये इस समय के जितने विद्वान धार्मिक अथवा राजनीतिक पुरुष किवा शिक्षा प्रचारक साहित्य क्षेत्र में उतरे उनको गद्य से ही अधिकतर काम लेना पडा फिर क्यों न इस समय अधिकतर गद्य ग्रन्थकार ही उत्पन्न होते। बाबू हरिश्चन्द्र के समय में जितने हिन्दी के प्रसिद्ध लेखक हुये वे अधिकतर गद्य ग्रन्थकार हैं। उनका वर्णन मैं आगे चलकर करूंगा। गद्य के साथ साथ उस समय जिन प्रतिष्ठा प्राप्त लेखकाें ने पद्य रचनायें भी की उनका वर्णन मैं ऊपर कर चुका। महामहोपाध्याय पं° सुधाकर द्विवेदी ऐसे कुछ मान्य पुरुषों ने भी उम समय गद्य के साथ कुछ पद्य रचना भी की थी। परन्तु उनकी पद्य रचनायें बहुत थोड़ी हैं। इसलिये पद्य विभाग में मैंने उन्हें स्थान नहीं दिया।