पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५३७

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।
(५२३)

माधुर्य अब तक नहीं आया। खड़ी बोली की कविता ने प्रायः वही मार्ग ग्रहण किया है जो उर्दू भाषा की कविता का है। परंतु ब्रजभाषा या अवधी के शब्दों को लेने में वह उससे भी संकीर्ण है वरन संकीर्णतम है। उर्दू में आवश्यकतानुसार अबभी ब्रजभाषा के कोमल शब्द गृहीत हैं यहाँ तक कि संस्कृत के शब्द भी अपने ढंग में ढाल कर लेलिये जाते हैं । परंतु खड़ी बोली के प्रेमी ऐसा करना पाप समझते हैं। यद्यपि वे अपने इस उद्योग में पूर्णतया सफलता नहीं लाभ कर सके। उर्दू भाषा की कविता अधिकांश अरबी बह्र में की जाती है, जिसमें अधिकतर ध्यान वज़न पर रक्खा जाता है। इसलिये उसकी कविताओं का शब्द-विन्यास शिथिल नहीं जान पड़ता । वरन उसमें एक प्रकार का विचित्र ओज आ जाता है । हां, यह अवश्य है कि इस ओज के प्रपंच में पड़ कर हिन्दी के कितने शब्दों. सर्वनामों, कारक चिन्हों का कचूमर निकल जाता है और कितने बेतरह पिस जाते हैं। परंतु उर्दू वालों के छन्दोनियम कुछ ऐसे हैं कि वे इस प्रकार शब्दों की तोड़ मगेड़ को सदोष नहीं मानते । हिन्दी भाषा में यह प्रणाली गृहीत नहीं हो सकती, क्योंकि उससे कविता की भाषा अधिकतर दृपित हो जावेगी। ऐसी दशा में मेरा विचार है कि खड़ी बोली के पद्यकारों को हिन्दी के उपयुक्त शब्दों का परित्याग कभी नहीं करना चाहिये, चाहे वह अवधी का हो, चाहे ब्रजभाषा का । इससे भाषा सरस और ललित बन जावेगी और उसका कर्कशपन जीता रहेगा।

आन्दोलन के समय में बहुत सी ऐसी बात भी गृहीत हो जाती हैं जो यथार्थ उपयोगिनो नहीं होतीं, किंतु स्थिरता आने पर उनका परित्याग ही उचित समझा जाता है। खड़ी बोली के आन्दोलन काल में कुछ ऐसे नियम स्वीकृत हुये हैं जो पद्य को सरस. सुन्दर, मनोहर और कोमल बनाने के बाधक हैं मैं सोचता हूं अब उनका विचार पूर्वक परित्यांग किया जाना अनुचित नहीं। परिस्थिति के अनुसार सदा त्याग और ग्रहण होता आया है । अब भी इस सिद्धान्त से काम लिया जा सकता है। कुछ भापा मर्मज्ञों का यह कथन है कि भाषा की कोमलता और मधुरता का बहुत अधिक सम्बन्ध सँस्कार से है । यदि यह हम स्वीकार भी कर लें तो भी यह