पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५३८

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नहीं कहा जा सकता कि गद्य और पद्य को भाषा में कोई अन्तर नहीं होता। और पद्य के लिये कोमल, सरस और मधुर शब्द चुनने की आवश्यकता नहीं होती । संसार के साहित्य पर दृष्टि डाल कर देखिये, सब जगह इस सिद्धान्त का पालन हुआ है और वर्तमान काल में भी हो रहा है। फिर सँस्कार बिषयक तर्क कैसा ? मेरा कथन इतना ही है कि पद्य की भाषा को यदि पद्य के योग्य बनाना अभीष्ट हो तो उसी भाषा के विभिन्न अंगों के उपयुक्त शब्दों का त्याग नहीं होना चाहिये। विशेष कर ऐसे शब्दों का जो व्यापक हों और जिनमें प्रान्तिकता अथवा ग्रामीणता की छूत. अधिक न लगी हो। मैं यह भी मानता हूं कि हिन्दी भाषा राष्ट्रीयता को ओर बढ़ रही है, इस लिये उसके गद्य और पद्य में भी ऐसे ही शब्द प्रयुक्त होने चाहिये जो अन्य प्रान्तों में भी सुगमता से समझे जा सकें। निस्संदेह अगर ऐसे शब्द हैं तो संस्कृत ही के शब्द हैं। इसी लिये मैं भी उनके अधिक व्यवहार का विरोधी नहीं हूं। परन्तु क्या संस्कृत में कोमल, मधुर, और सरस शब्द नहीं हैं। फिर क्यों खड़ी बोली के पद्यों में संस्कृत के परुष शब्दों का प्रयोग प्रायः किया जाता है। दूसरी बात यह कि अवधी अथवा ब्रजभाषा के ऐसे ही शब्दों के लेने का अनुरोध किया जाता है जो व्यापक, उपयुक्त और संस्कृत सम्भूत हों। बिदेशी भाषा के शब्द लिये जाँय और उनको खड़ी बोली की रचना में स्थान दिया जाय और अपने उपयोगा शब्दों को यह कह कर त्याग किया जावे कि वे ब्रजभाषा या अवधी के हैं तो यह कहाँ तक युक्ति संगत है। ब्रज- भाषा, खड़ी बोली और अवधी अन्य नहीं हैं वे एक ही हैं, आवश्यकता और देशकालानुसार हम उनके भाण्डार से उपयुक्त शब्द-संचय कर सकते हैं। इससे सुविधा ही होगी. असुविधा नहीं । मत-भिन्नता भी हितकारी है, यदि उसमें व्यर्थ ईर्ष्या-द्वेष की मात्रा न हो ।।

जिस समय यह खड़ो बोली और ब्रजभाषा का आन्दोलन चल रहा था उस समय एक और आन्दोलन भी बल प्राप्त कर रहा था। वह था सरकारी कचहरियों में हिन्दी भाषा के प्रचलित होने का उद्योग। हिन्दी हितैषियों का दल महर्पि-कल्प पूज्य पं० मदन मोहन मालवीय जी के