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पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५४३

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२०— त्यों मनुष्य होने का मान
सबके समान मन धरता है।
२१— धन तृष्णा का घृणित एक
सामान्य कुण्ड बन जायेगा।
२२— नृपति शूर विद्वान आदि
कोई भी मान नहिं पावेगा।

श्रान्त पथिक।

१— इन पद्यों में किस प्रकार संस्कृत नत्सत शब्दाें का आधिक्य है यह कथन करने की आवश्यकता नहीं। यह में स्वीकार करूंगा कि चन्द बरदाई के समय से ही हिन्दा भाषा की कविता में संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग होने लगा था। उत्तरात्तर यह प्रवृत्ति बढ़ती गई। यहां तक कि अवधी भाषा के मुसल्मान कवियों ने भी अवसर आने पर संस्कृत के तत्सम शब्दों का व्यवहार किया। परंतु इन लोगों का संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयाग परिमित है। उनकी प्रवृत्ति तद्भव या अर्ध तत्सम शब्दों के व्यवहार की ओर हो अधिक देखी जाती है। संस्कृत तत्सम शब्दों का प्रयोग वे किसी कारण विशेष के उपस्थित हो जाने पर ही करते थे। हाँ, गोस्वामी तुलसी दास अथवा प्रज्ञाचक्षु सूरदास आदि कुछ, महाकवियों ने किसी किसी रचना में विशेष कर स्तुति और वंदना-सम्बन्धी पद्योंमें संस्कृत शब्दों का प्रयोग बहुत अधिक किया है। और इस प्रकार किसी किसी पद्य को संस्कृतमय बना दिया है। पन्तु ऐसे पद्यों की संख्या बहुत थोड़ी है, हम उनका अपवाद मानते हैं, वे नियम के अंतर्गत नहीं। पाठकजी के पद्यों में संस्कृत शब्दों का बाहुल्य नियम के अंतर्गन और यही खड़ी बोलचाल की रचना का बहुत बड़ी विशेषता है। तत्सम शब्दाें के प्रयोग का जो आदर्श इन पद्यों में पाया जाता है, वह खड़ी बोली-संसार में आज तक गृहीन है। किसी किसी ने पाँव आगे भी बढ़ाया है और इससे अधिक संस्कृत-परुप-शब्दों से गर्भित रचनायें की है। अब तक यह प्रवाह चल