पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५४५

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ही में ग्रहण किया। हिन्दी भाषा के पहिले आचार्यों की भी यही प्रणाली है। मेरा विचार है इस प्रणाली को स्वीकृत रहना चाहिये। विशेष अवस्थाओं में उसके दीर्घ करने का मैं विरोधी नहीं।

४ ऊपर के पद्यों में एक स्थान पर आया है ‘तरुतरुप्रति’, और दूसरे स्थान पर आया है ‘मन धरता है। खड़ी बोलचाल के नियमानुसार इनको ‘तरु तरु के प्रति और मन में धरना है’ होना चाहिये। इनमें कारक चिन्हों का लोप है। यह प्रयोग खड़ी बोलचाल के नियम के विरुद्ध है। के का प्रयोग क्षम्य भी हो सकता है क्योंकि वहाँ उसके बिना अर्थ की भ्रांति नहीं होता। परंतु में का प्रयोग न होने से वाक्य का यह अर्थ होता है कि मन स्वयं किसी वस्तु को धरता या पकड़ता है। कवि का भाव यह नहीं है। वह यह कहता है कि अपने मन में कोई कुछ रखता या धरता है। ऐसा प्रयोग निस्सन्देह सदोष है। ऐसा होना नियमानुकूल नहीं। कवि ने ऐसा प्रयोग संकीर्णता में पड़ कर किया है। इसमें उसकी असमर्थता प्रगट होता है। मेरा विचार है कि खड़ी बोलचाल के कवियों को इस असमर्थता-दोष से बचना चाहिये। बड़ी बोलचाल की रचनाओं में वहीं ऐसा प्रयोग करना चाहिये जहाँ वह मुहावरों के अंतर्गन हो जैसा मैं ऊपर लिख आया हूं।

५ — समस्त पदों को पद्य में यदि लाया जावे तो उसको उसी रूप में लाया जाना चाहिये जो शुद्ध है उनके शब्दों को उलटना — पुलटना नहीं चाहिये। परन्तु प्रायः हिन्ही पद्यों में इस नियम की रक्षा पूर्णतया नहीं हो पाती। प्रयोजन यह कि सुन्दर बालक, कमल-दल कमल-नयन, पंचमुख और बहुचिन्तित इत्यादि वाक्यों को इसी रूप में लिखा जाना चाहिये किन्तु वृत्त एवं छन्द के बन्धनों में पड़ कर उनके शब्दों को उलट-पुलट दिया जाता है। ऐसा अन्य भाषाओं में भी होता है। किन्तु यथा सम्भव इस दोष से बचना चाहिये। विशेष कर तत्पुरुप और बहुव्रीहि समासों में। ऊपर के पद्यों में एक स्थान पर साधारण अति’ लिखा गया है। ऐसा प्रयोग उचित नहीं था। विशेषकर उस अवस्था में जब ‘अति साधारण’