पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५४६

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लिखा जा सकता था। मैं समझता हूँ ऐसा अमनोनिवेश के कारण असावधानी से हो गया है। ऐसी असावधानी कदापि वांछनीय नहीं ।।

६— ऊपर के पद्यों में एक स्थान पर 'तहाँ' के स्थान पर 'तहँ' और दूसरी जगह 'नहीं' के स्थान पर 'नहिं' आया है। खड़ी बोलचालके नियमानुसार उनको शुद्धरूप में हाे आना चाहिये था। संस्कृत में 'नहि' का प्रयोग 'नहीं' के अर्थ में होता है, जैसे नहि नहि रक्षति डुक्रिय करणम्। इस दृष्टि से देखा जावे तो 'नहि' का प्रयोग सदोप नहीं है। क्योंकि वह संस्कृत का तत्सम शब्द है। यहां यह कहा जा सकता है कि गद्य में नहिं का प्रयोग न होना इस विचार का बाधक है। किन्तु मैं इस बात को इसलिये नहीं मानता कि इससे पद्यको वह सुविधा नष्ट होती है जो गद्य को अपेक्षा उसे अधिक प्राप्त है। मेग विचार है कि पद्य में संस्कृत के तत्सम शब्द होने का ध्यान रख कर याद उसका प्रयोग संकार्ण स्थलों पर किया जाय तो वह सदोष न होगा हाँ, 'नहिं' के 'हि' पर बिन्दी नहीं लगानी चाहिये। पद्य की वीसवीं पंक्ति का 'का' और बाईसवीं पंक्ति का 'भी' लघु पढ़ा जाता है यद्यपि वह लिखा गया है, दीर्घ। हिन्दी भाषा के प्रचलित नियमानुसार दीर्घ को लघु पढ़ना छन्दोनियम के अन्तर्गत है। सबैया में प्रायः ऐसा किया जाता है। परंतु इस प्रकार का प्रयोग न होना ही वांछनीय है, क्योंकि प्रायः लोग ऐसे स्थानों पर अटक जाते हैं और छन्द को ठीक ठीक नहीं पढ़ सकते यद्यपि उर्दू में ऐसे प्रयोगों की भरमार है। उर्दू में इस प्रकार का प्रयोग इसलिये नहीं खटकता कि उर्दू वाले इस प्रकार के प्रयोगों के पढने के अभ्यस्त हैं। हिन्दी पद्याें में इस प्रकार के प्रयोग बहत ही अल्प मिलते हैं इसलिये प्रायः पढ़ने में रुकावट उत्पन्न करते हैं। ऐसी दशा में जहाँ तक सम्भव हो इस प्रकार के प्रयोग से बचन को चेष्टा की जानी चाहिये।

७— अठारहवीं पंक्ति में 'और' के स्थान पर 'ओ' लिखा गया है खड़ी बोलचाल की कविता में प्रायः 'और' ही लिख जाना अच्छा समझा जाता है। कुछ लाेग अँगरेज़ी प्रणाली के अनुसार 'औ' के ऊपर 'कामा'