पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५६९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ प्रमाणित है।
( ५५५ )


चैन था नाम था न चिन्ता का
थे दिवस और ही लड़कपन के।
झूठ जाना कभी न छल जाना
पाप का पुण्य का न फल जाना।
प्रेम वह खेल से खिलौनों से
चन्द्र तक के लिये मचल जाना।
चन्द्र था और और ही तारे
सूर्य भी और थे प्रभाधारे।
भूमि के ठाट कुछ निराले थे
धूलिकण थे बहुत हमें प्यारे।
सब सखा शुद्ध चित्त वाले थे
प्रौढ़ विश्वास प्रेम पाले थे।
अब कहाँ रह गई बहारें वे
उन दिनों रंग ही निराले थे।
सत्य रूप हे नाथ तुम्हारी शरण गहूंगा।
जो ब्रत है ले लिया लिये आमरण रहूंगा।
ग्रहण किये मैं सदा आप के चरण रहूंगा।
भीत किसी से और न हे भयहरण रहूंगा।
पहली मंज़िल मौत है प्रेम पंथ है दूर का।
सुनता हूं मत था यही सूली पर मंसूर का।

३—पंडित रामचरित उपाध्याय ने खड़ी बोली की कविता करने में कीर्ति अर्जन की है वे भी वर्तमान काल के प्रसिद्ध कवियों में हैं। वे संस्कृत के विद्वान् हैं और हिन्दी भाषा पर भी उनका अच्छा अधिकार है। पहले वे व्रजभाषा में कविता करते थे। उन्होंने बिहारी लाल के ढंग पर