पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५७०

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एक सतसई भी लिखी है। परन्तु अब तक वह हिन्दो संसार के सामने नहीं आई । उन्होंने रामचरित-चिन्तामणि' नामक एक बड़ा काव्य खड़ी बोली में लिखी है और इसके अतिरिक्त और भो पाँच सात पुस्तकें खड़ी बोली ही में लिखी हैं। खड़ी बोली की रचना करने में ये निपुण हैं और शुद्ध भाषा लिखने की अधिकतर चेष्टा करते हैं। इनको भाषा प्रायः संस्कृत-शैली की होती है और उसमें संस्कृत के ढंग से ही भावप्रकाशन देखा जाता है। इनकी रचनाओं में भी सामयिकता गई जाती है, अन्योक्ति द्वारा व्यङ्ग करने में आप अपने समान आप हैं। उनका वाक्य विन्यास प्रायः मधुर, कोमल और सरस है। ये हो खड़ी बोली के ऐसे कवि हैं जिन्होंने जब से उसकी सेवा का व्रत लिया अन्य भाषा की ओर प्रवृत्त नहीं हुये। उनकी कुछ रचनायें नीचे दी जाती है :--

सरसता सरिता जयिनी जहाँ
नव नवा नव नीति पदावली ।
तदपि हा ! वह भाग्य-विहीन की
सुकविता कवि ताप करी हुई।
मन रमा रमणी रमणीयता
मिल गयीं यदि ये विधि योग से।
पर जिसे न मिली कविता-सुधा
रसिकता सिकता सम है उसे ।
सुविधि से विधि से यदि है मिली
रसवती सरसीव सरस्वती ।
मन तदा तुझ को अमरत्वदा नव
सुधा बसुधा पर ही मिली।
चतुर है चतुरानन सा वही सुभग
भाग्य विभूषित भाल है ।