पृष्ठ:हिंदी भाषा और उसके साहित्य का विकास.djvu/५८१

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ जाँच लिया गया है।

(५६७)


तू मन मूढ़ सम्हारि चलै किन
राह न जानी है रैनि अँधेरी
अहह अधम आँधी आ गयी तू कहाँ से।
प्रलय घन घटा सी छा गयी तू कहाँ से।
पर दुख सुख तूने हा न देखा न भाला।
कुसुम अधखिला ही हाय क्यों तोड़ डाला।
तड़प तड़प माली अश्रु धारा बहाता।
मलिन मलिनियाँ का दुःख देखा न जाता।
निठुर फल मिला क्या व्यर्थ पीड़ा दिये से।
इस नव लतिका की गोद सूनी किये से।
सहृदय जन का जो कण्ठ का हार होता।
मुदित मधुकरी का जीवनाचार होता।
वह कुसुम रँगीला धूल में जा पड़ा है।
नियति नियम तेरा भी बड़ा ही कड़ा है।

११ बाबू गोपालशरण सिंह ने खड़ी बोलचाल में कवित्त और सवैयों की रचना कर थोड़े ही समय में अच्छी कीर्ति पाया है खड़ी बोल-चाल के कवियों में से कतिपय कवियों ने हो कवित्त और सवैयों को रचना कर सफलता लाभ की है। अधिकांश खड़ी बोली के अनुरक्त कवि कवित्त और सवैयों में रचना पसन्द नहीं करते और रचना करने पर सफल भी नहीं होने। बाबू गोपाल शरण सिंह का लेखनी ने यह दिखला दिया कि उक्त वर्ण वृत्तों में भी खड़ी बोली को कविता उत्तमता के साथ हो सकती है। उन्होंने अपनी रचनाओं में खड़ी बोली की ऐसी मँजी भाषा लिखी है, जो उनकी कृति को मधुर और सरस तो बनाती ही है, हृदयग्राही भी कर देती है। वे शुद्ध भाषा लिखने की चेष्टा करते। पर ब्रजभाषा और अवधी के सुन्दर शब्दों का भी उपयुक्त स्थानों